पितृपक्ष खत्म
होने को
है.
मौसम में
गुलाबी ठंडक
आ गयी
है. सुबह
हल्का सा
कुछ ओढ़
लेने का
मन करता
है. ज़ाहिर
है, नवरात्रि
आ गयी
है. ऐसी
गुलाबी ठंडक
नवरात्रों में
ही होती
है. नवरात्रि
शुरु होते
ही मेरा
मन एकदम
बचपन की
ओर भागने
लगता है.
बचपन की
उन गलियों
में, जहां
हम लड़कियां
पूरे साल
नवरात्रि का
इंतज़ार करते
थे. ये
इंतज़ार इसलिये
नहीं होता
था कि
हमें नौ
दिन व्रत
करना है,
बल्कि नौरता
के लिये
होता था
ये इंतज़ार.
नौरता यानी
बुंदेलखंड का
अद्भुत सांस्कृतिक
उत्सव. नौ
दिन चलने
वाला रंगों
का पर्व.
हमारे पड़ोस
में विश्वकर्मा
आंटी रहती
थीं , हमारे
नौरता का
इंतज़ाम उन्हीं
के दरवाज़े
पर होता.
नौरता कथा
शुरु करने
से पहले
आइये आपको
थोड़ा सा
परिचय दे
दूं इस
अद्भुत खेल
का. बुंदेलखंड
में नौरता
या सुअटा,
लड़कियों द्वारा
खेला जाने
वाला गज़ब
का खेल
है. लड़कियां
नवरात्रि शुरु
होने के
दस दिन
पहले से
रंग बनाने
लगतीं. अब
तो बाज़ार
में रंगोली
के पर्याप्त
रंग उपलब्ध
हैं सो
दिक्कत नहीं
होती. तो
लड़कियां रंग
बनातीं, डिब्बों
में भर-भर
के रखतीं.
रंगोली की
नई-नई
डिज़ाइनें खोजी
जातीं. फिर
किसी एक
स्थल को
चुना जाता
इस खेल
को सम्पन्न
करने के
लिये. जिस
के दरवाज़े
पर नौरता
खेलने की
अनुमति मिल
जाती, वहां
जितनी लड़कियां
होतीं, गिन
के उतने
ही खाने
बनाये जाते
और फिर
उन्हें गोबर
से लीपा
जाता. छुई
मिट्टी से चौकोन खाने
बनाये जाते.
ये खाने
एकदम बराबरी
के होते.
वहीं दीवार
पर सूरज,
चांद और
हिमालय भी
बनाये जाते,
काली मिट्टी
से. मिट्टी
की गौर
भी वहां
बिठाई जाती.
नौ दिन
लड़कियां बड़े
सबेरे इस
स्थान पर
इकट्ठी होती,
और फिर
अपने-अपने
खानों में
मनभावन रंगोली
बनातीं.
हम लड़कियां
सबेरे ठीक
साढ़े तीन
बजे उठ
जातीं. सभी
अगल-बगल
की थीं,
सो एक
दूसरे को
आवाज़ लगातीं,
और मिलजुल
के निकल
जातीं गोबर
तलाशने. सभी
लड़कियों को
अपने-अपने
खाने लीपने
होते थे.
आधा घंटा
तो इस
लीपे हुए
को सूखने
में ही
लगता, तो
लड़कियां जल्दी
से जल्दी
लिपाई का
काम खत्म
कर लेना
चाहती थीं.
हमारे घर
के सामने
ही मेरी
दोस्त रहती
थी अनीता.
उसके घर
में गायें
थीं. तो
मैने उसे
कह रखा
था कि
वो हम
लोगों के
लिये गोबर
निकाल के
गेट के
पास रख
दिया करे.
चूंकि अनीता
नौरता नहीं
खेलती थी
सो उसे
सुबह से
न जगाना
पड़े इसलिये
ये व्यवस्था
की गयी.
हम चार-पांच
लड़कियों के
लायक गोबर
मिल जाता.
लिपाई के
काम के
बाद विश्वकर्मा
आंटी हिमांचल,
सूरज, चंदा
और गौर
की पूजा
करवातीं. एक
थाली में
हल्दी, कुम्कुम,
चावल, स्थाई
रूप से
रखे होते.
पूजा का
जल, फूल
और दूब
रोज़ ताज़े
ही लाये
जाते. फिर
शुरु होती
आरती-
“उगई
न होय
बारे चंदा
हम घर
होय लिपना-पुतना
सास न
होय दै
दै झरियां
ननद न
होय चढ़ै
अटरियां
जौ के
फूल, तिली
के दाने
चंदा ऊंगे
बड़े भिन्सारे”
इतना मधुर
गीत है
ये कि
मुझे आज
इतने सालों
बाद भी
मुझे ज्यों
का त्यों
याद है.
फिर एक
गीत और
होता, जिसमें
हर लड़की
के परिवार
वालों के
नाम होते.
फिर शुरु
होता नौरता
के गीतों
का दौर
और रंगोलियों
का मांडना.
हर लड़की,
दूसरी से
बढ़िया रंगोली
बनाना चाहती.
चार बजे
सुबह शुरु
होने वाला
ये नौरता-कर्म,
छह बजे
समाप्त होता.
रंगोली बनाने
के बाद
सारी लड़कियां
अपनी-अपनी
थाली के,
उस दिन
के
बचे हुए
रंग एक
जगह इकट्ठे
करतीं, और
फिर सड़क
पर काफ़ी
दूर जा
के उन्हीं
रंगों से
बीच सड़क
पर नौरता
का भूत
बनातीं. फिर
पलट के
देखे बिना,
दौड़ के
नौरता के
स्थान पर
पहुंचतीं. केवल
कुंआरी
लड़कियों का
ये अद्भुत
खेल नवरात्रि
के नौवे
दिन समाप्त
होता. अष्टमी
की शाम
को एक
छिद्रित मटकी
में दिया
जला के
सारी लड़कियां
चंदा इकट्ठा
करने जातीं.
विश्वकर्मा आंटी
तब भी
साथ होतीं.
वे गीतीं-
“पूछत-पूछत
आये हैं
नारे सुअटा
कौन बड़े
जू की
पौर”
हर घर
से महिलाएं
बेहद प्रसन्न
मन कुछ
न कुछ
चंदा ज़रूर
देतीं. ये
चंदा गौर
की प्रतिमा
को सजाने के ही
काम में
लाया जाता
. नौवी
के दिन
“हप्पू” होता.
इस शाम
को लड़कियां
रंगोली बनातीं
और फिर
अपने-अपने
घर से
लाये व्यंजन
मिल बांट
के खातीं.
हाथ में
ग्रास पकड़े
रहतीं, आंटी
ज़ोर से
गातीं-
“पराई
गौर की
आंय देखो
झाय देखो
का पैरें
देखो, नाक
बूची देखो,
कान बूचे
देखो”
हप्पू………………और
सारी लड़कियां
अपने हाथ
का ग्रास
मुंह में
डालतीं. इसी
तरह पूरा
गीत पराई
गौर की
बुराई और
अपनी गौर
की तारीफ़
में गाया
जाता. गीत
के साथ-साथ
ही हप्पू
भी सम्पन्न
हो जाता.
इसके साथ
ही सम्पन्न
होता नौ
दिन चलने
वाला ये
रंगीला खेल-नौरता.
लड़कियों की
आंखों में
इंतज़ार होता,
अगली शारदेय
नवरात्रि का.
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, सौ सुनार की एक लौहार की “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंआभार आपका.
हटाएंआभार आपका.
जवाब देंहटाएंयादें ... हर त्यौहार से जुडी बचपन की बातें मन को गुदगुदाती हैं ...
जवाब देंहटाएंरोचक लिखा है ...
यादें सचमुच बहुत खुश करती हैं मन को. शुक्रिया आपका.
हटाएंपर्व अपने पारम्परिक रूप में बहुत मोहक लगते हैं ..... बहुत रोचक शैली में लिखा है
जवाब देंहटाएंधन्यवाद निवेदिता :)
हटाएंis alekh ko padhkar man gad gad ho gaya,..... is liye iska upyog karne ka nivdena mai karta hu. taaki ham apne pathako ko bhi ise padhva sake.....
जवाब देंहटाएंज़रूर इस्तेमाल करें अनिल.
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