अपनी रचनाओं का किताब के रूप में प्रकाशित होना, लोगों के हाथों में किताब का पहुंचना और फिर सुधि पाठकों की उस पर प्रतिक्रिया आना कितना सुखद है ये वही समझ सकता है, जिसकी पहली किताब प्रकाशित हुई हो. बाद की किताबों के लिये शायद उतना रोमांच न रह जाता हो. " बातों वाली गली" पर प्रतिक्रियाएं मिलनी शुरु हो गयी हैं, जिन्हें मैं क्रमश: यहां पोस्ट करूंगी. तो ये रही पहली प्रतिक्रिया चारु शुक्ला जी की- चारु जी ने इस किताब पर एक गीत भी रच डाला है, उसका वीडियो भी देखें -
'बातों वाली गली' विलम्ब से निकली अपने घर से सो सबका इंतज़ार थोड़ा लम्बा तो हुआ, लेकिन अब खुशी इस बात की है कि अब ये अलग-अलग पतों पर, अलग-अलग शहरों में अपनी पहुंच बना रही है। कल मित्रवर Charu Shukla जी को किताब मिली और उन्होंने एक ही बैठक में उसे न केवल पढ़ डाला बल्कि शानदार टिप्पणी भी लिख के पोस्ट की। बहुत शुक्रिया चारु जी। आपके लिए यहां कॉपी कर लाये हैं चारु जी की पोस्ट। पढ़ें किताब के बारे में आप भी-
इंतज़ार बहुत सालता,तब जब ये लगातार बना रहता कि आज अब न जाने कब पूरा हो, पर सच में जब पूरा होता तो खुशी दोगुनी बढ़ा देता, ऐसा ही कुछ अचानक आज हुआ, जब हमारे इंतज़ार पर लगाम लगा दी, डाक बाबू ने आकर, एकदम से वो गीत याद आ गया, डाकिया डाक लाया, अर्सा गुज़र गया डाक बाबू का इंतज़ार न किया, पर इसको भी फिर जीने का अवसर दिया, वंदना अवस्थी दुबे जी ने अपनी पहली कृति बातों वाली गली लिखकर, तो साहब अपना इंतज़ार आज खत्म पर बातों का सिलसिला तो अभी शुरू ही हुआ है, अब इसे अच्छी कहूं कि बुरी पर आदत तो बस आदत है, कोई अच्छी रचना हाथ लगी नहीं की, जब तक पूरी न पढ़ लें चैन कहाँ, तो कुछ ऐसा ही सफ़र शुरू हुआ बातों वाली गली का, जो अचला नागर जी की शानदार भूमिका और वंदना जी की अपनी कही के साथ, अलग अलग दायरे, अनिश्चितता में,ज्ञातव्य,आस पास बिखरे लोग,बातों वाली गली,नहीँ चाहिए आदी को कुछ,हवा उद्दंड है, नीरा जाग गई है, रमणीक भाई नहीं रहे, सब जानती है शैव्या,अहसास,दस्तक के बाद,प्रिया की डायरी, करत करत अभ्यास के, बड़ी हो गईं हैं ममता जी,विरुद्ध,सब तुम्हारे कारण हुआ पापा,डेरा उखाड़ने से पहले,शिव बोल मेरी रसना घड़ी घड़ी से होता हुआ बड़ी बाई साब पर जाकर खत्म हुआ, वंदना जी की कहानियां जहां आस पास की जान पड़ती हैं तो वहीँ उनके पात्र तो लगता कि अरे ये कुछ वैसा ही तो है, जैसे भाव जगाते, और हाँ वो जो आपकी कहानी के मेहमानों के सामने ही मिठाई चट कर जाने वाले बच्चे हैं न, वो मेरे ही दोनों शैतान हैं, उसी रंग में रंगे हुए
बाकी सारी कहानियां अपने आप में कहीं गुदगुदाती हैं तो कहीं प्रश्न भी लेकर खड़ी नज़र आती हैं कि,आखिर बदला क्या? बाकी नारी मन की जितनी गहरी पड़ताल आपने की है, वो प्रश्न भी है, सोचने पर मजबूर भी करता,
वंदना जी आप साल दर साल यूं ही लिखती रहें, इतनी बेहतरीन रचना के लिए बहुत बहुत शुक्रिया और उम्मीद है आगामी रचना जल्द पढ़ने मिले
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (17-09-2017) को
जवाब देंहटाएं"चलना कभी न वक्र" (चर्चा अंक 2730)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत शुक्रिया शास्त्री जी.
हटाएंआभारी तो हम हैं आपके.
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