रविवार, 17 सितंबर 2017

बातों वाली गली में टहलना रश्मि का....


    रात में कोई भी गली सुनसान हो जाती है ,लोग वहाँ जाने से डरते हैं ...पर मैं तो देर रात गली में घूमती रही और खूब गुलज़ार पाया गली को.
    तरह तरह के लोगों से मिलना हुआ...कुछ हंसाते रहे तो कुछ सोचने पर मजबूर करते रहे पर वो 'बातों वाली गली ' जो थी 
    बहुत इंतज़ार के बाद वंदना अवस्थी दुबे का कहानी संग्रह 'बातों वाले गली ' मिला. वंदना का लिखा करीब सात वर्षों से पढ़ती आ रही हूँ. . ब्लॉग पर उसकी कहानियाँ भी पढ़ी हैं और सामयिक विषयों ...आस-पास की घटनाओं पर तो उसकी कलम खूब चलती है. बहुत दिनों से हम दोस्तों का आग्रह था ,अपनी कहानियाँ संग्रहित कर प्रकाशित करवाओ...और आखिरकार वंदना ने हमारे कहे का मान रख लिया...आलस त्याग कहानियाँ संग्रहित कीं और हमारे सामने 'बातों वाली गली' नमूदार हो गई.
    वंदना की लेखन शैली बहुत सहज और सरल है और कम शब्दों में गहरी बात कह देने की अद्भुत क्षमता है. समाज में जितनी तरह के लोग हमें आस पास दिखते हैं,सभी कहानी के पात्रों के रूप में हमें इस किताब में नजर आयेंगे और उनके सुख दुःख,उनके मन की उलझनों में हम भी शामिल होते चले जाते हैं.
    एक गृहणी नीरू है जो अपनी सम्पन्न पड़ोसिन के सामने हीनभावना की शिकार हो जाती है,जबकि हंसमुख पति और चंचल बच्चों के साथ उसकी गृहस्थी भरी-पूरी है.
    आदी , अपनी अमीर पडोसी दीदी से बहुत प्रभावित है पर जब उसे एक दिन उनके यहाँ गुजारना पड़ता है तो अपने परिवार का अपनापन और स्नेह मिस करने लगता है.
    एक बेरोजगार लडके और एक शादी का इंतज़ार करती लडकी के मन की कशमकश,अलग अलग कहानियों में बहुत अच्छे से बयां हुई है.
    एक बड़े व्यवसायी , जिन्होंने सारा व्यापार अपनी मुट्ठी में कर रखा था ,उनके गुजरने के बाद उनके बुजुर्ग बेटे भी असहाय से हो जाते हैं ....वहीँ एक सास को बहु से इतना ज्यादा काम करवाने की आदत थी कि उनकी मृत्यु के बाद भी पचास की उम्र छूती बहु को उनकी पुकार सुनाई देती रहती है.
    समाज की विसंगतियाँ भी कई कहानियों में उभर कर दिखाई देती हैं. एक पढ़ी लिखी अपने काम में निष्णात लड़की को भी दफ्तर में उसका सहयोगी उसे कमतर समझता है.
    संगीत में गहरी रूचि रखने वाली लड़की का शादी के बाद ,किसी पार्टी में गाना पति को गवारा नहीं होता.
    एक बुजुर्ग महिला जिन्हें होटल में किसी भी जाति के बावर्ची के हाथों का बना खाने से परहेज नहीं है पर घर में किसी विशेष जाति का रसोई में प्रवेश पसंद नहीं .
    घर की सबसे छोटी लडकी जो नौकरी करती है, उसके बड़े भाई बहन उसकी शादी की,उसके देखरेख की चिंता बिलकुल नहीं करते पर अपने सारे काम बड़े आराम से करवाते हैं.
    कहानियों में जहां स्त्रियों की समस्या कि कैसे उन्हें घर से बाहर निकलते ही अनचाहे स्पर्श , फिकरे ,छींटाकशी सहन करना पड़ता है पर लेखिका ने कलम चलाई है तो स्त्रियों की कमजोरी पर भी बखूबी लिखा है कि कैसे उन्हें गॉसिप करना बेहद पसंद है और वे किसी को दूर से ही देखकर अंदाज़े लगा ,अफवाहे फैलाने लगती हैं.
    एक साधारण से आदमी के बाबा बनने और लोगों द्वारा पूजे जाने की कहानी बहुत ही सटीक और सामयिक है. लोगों की अंधश्रद्धा पर करार प्रहार है.
    इन सब कहानियों की विशेषता ये है कि सबका अंत सकरात्मक है . पात्रों को अपनी गलती का अहसास होता है या फिर वे विरोध का स्वर उठाते हैं. सभी कहानियाँ एक नई रौशनी की ओर उन्मुख होती हैं. कहानियों में रोचकता बरकरार रहती है.
    अचला नागर दी ने अपनी लिखी भूमिका में वंदना की कहानियों का बहुत सुंदर विश्लेष्ण किया है .
    वंदना को बहुत शुभकामनाएं ....उसकी लेखनी यूँ ही अबाध गति से चलती रहे .


4 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (18-09-2015) को "देवपूजन के लिए सजने लगी हैं थालियाँ" (चर्चा अंक 2731) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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