सुबह का समय. मॉर्निंग
वॉक से लौटते हुए, रास्ते में ही नया बना जॉगिंग पार्क मिलता है. जब लौटती हूं, तब
सामूहिक हंसी सुनायी देती हैं. हा हा हा....हा हा हा....!!! पिछले दिनों इलाहाबाद
गयी थी. प्रात: भ्रमण की शौकीन मैं, कम्पनी बाग़ चली गयी. सुबह पांच बजे से यहां
लगभग आधा इलाहाबाद, मॉर्निंग वॉक के इरादे से चला आता है. जिससे कई दिनों से
मिलना न हुआ हो, वो भी कम्पनी बाग में मिल ही जायेगा. ढाई सौ एकड़ में फ़ैले इस
कम्पनी बाग में तो कई जगह लाफ़िंग एक्सरसाइज़ चल रहे थे. अधिकांश बुज़ुर्ग ही थे जो
नकली हंसी के बहाने हंस रहे थे. और मेरा
मन पुराने ठहाकों की ओर दौड़ रहा था.
एक समय था, जब लोगों का
मिलना-जुलना, बैठना और बैठकों में हंसी-ठट्ठा होना बहुत आम बात थी.शहर की गलियों
में, गर्मियों की हर शाम, देखने लायक़ होती थी. घरों के बाहर पानी का झिड़काव और फिर
चार-छह कुर्सियों का घेरा. बीच में टेबल. धीरे-धीरे पापाजी के वे मित्र आने शुरु
होते जो प्राय: रोज़ ही आते थे. देश-दुनिया की बातें, समाज की बातें, और उससे भी
ज़्यादा यहां-वहां की अनर्गल बातें. ज़रा-ज़रा सी बात पर ज़ोरदार ठहाका लगता. ऐसे
ठहाके हर पांच मिनट पर सुनाई देते, जिनकी गूंज अगले तीन मिनट तक बनी रहती. ये
विशुद्ध हास्य के ठहाके थे. इनमें किसी का मज़ाक नहीं उड़ाया जा रहा था, किसी पर तंज
नहीं कसा जा रहा था, इन ठहाकों से किसी तीसरे को दुखी नहीं किया जा रहा था. जी भर
के हंसते थे लोग. इतना कि हंसते-हंसते पेट दुख जाये. इतना कि हंसते-हंसते आंसू
बहने लगें......!! पूरा माहौल ही जैसे मुस्कुराने लगता था. धरती से आसमान तक, केवल
हंसी का साम्राज्य हो जैसे...!
ऐसा नहीं था कि हंसी केवल
बड़ों तक ही सीमित थी. बच्चों के पास भी हंसी के ख़ज़ाने थे. तेनालीराम के किस्से,
अकबर-बीरबल, मोटू-पतलू, लम्बू-छोटू, ढब्बू जी, और भी पता नहीं कौन-कौन से पात्र
केवल बच्चों को नहीं, बड़ों को भी घेरे रहते थे अपनी हंसी के व्यूह में. ’नन्दन’
में तेनालीराम का नियमित स्तम्भ होता था. चम्पक में चीकू का तो पराग में
छोटू-लम्बू का. पत्रिकाओं के सबसे पहले खोले जाने वाले स्तम्भ होते थे ये. ये वो
पात्र हैं, जिनका नाम भर लेने से आज भी चेहरे पर मुस्कुराहट आ जाती है. ये पात्र
कैसा ग़ज़ब का हास्य सृजित करते थे! थोड़ा सा और बाद में बिल्लू, पिंकी, चाचा चौधरी
जैसे पात्र कॉमिक्स के ज़रिये आये. अब तक तेनाली राम और अकबर-बीरबल भी कॉमिक्स के
रूप में आ चुके थे. ये नन्हे-मुन्ने पात्र भी विशुद्ध हास्य ही पेश करते. साथ ही,
इसमें तमाम शिक्षाप्रद बातें भी हंसी-हंसी में ही सिखा दी जातीं. तेनालीराम और
बीरबल की बुद्धि का लोहा तो उनके राजा/बादशाह भी मानते थे. कमाल की
बुद्धिमत्तापूर्ण बातें होती थीं, ज़बरदस्त हास्य के साथ.
पुरानी फ़िल्में यदि आप
देखें, तो पायेंगे कि हर फ़िल्म में एक क~ऒमेडियन ज़रूर होता था. बिना हास्य कलाकार
के फ़िल्म अधूरी सी लगती थी. इस हास्य कलाकार का काम था, अभिनेता के साथ मिल के
किसी भी घटना पर हास्य का सृजन करना. दर्शक भी जी खोल के हंसते थे इन पात्रों के
अभिनय पर. महमूद, मुकरी, राजेन्द्रनाथ, टुनटुन, मनोरमा जैसे कुछ बहुत अच्छे हास्य
अभिनेता हैं, जिन्हें कोई भूल नहीं सकता. फ़िल्मों में इनकी उपस्थिति का उद्देश्य
भी फ़िल्म को बोझिल होने से बचाना होता था. यानी, हास्य ज़िन्दगी का अहम हिस्सा था.
लेकिन धीरे-धीरे हास्य का स्थान व्यंग्य ने ले लिया. अब पड़ोसी हो, रिश्तेदार हो,
अपरिचित हो, परिचित हो, अधिकारी हो, मातहत हो, सरकार हो, मंत्री हो, नेता हो, सब
केवल व्यंग्य के अधिकारी और व्यंग्य के पात्र हो गये हैं. आज हंसी में भी कड़वाहट
सी घुल गयी है. ठीक वैसे ही जैसे हवा में कार्बन डाइऑक्साइड...... लोग हंसते कम
हैं, हंसी ज़्यादा उड़ाते हैं. अब तो मुस्कुराहट भी कई अर्थ देने लगी है. पता नहीं
व्यंग्य भरी मुस्कान है, या उपहास भरी!! हंसी का गुमना, यानी हमारे सबसे
महत्वपूर्ण गुण का खत्म होना. हंसी का वरदान सभी जीवों में केवल इंसानों को ही
प्रकृति ने दिया है. इसे बचा के रखें. न केवल बचायें, बल्कि बढ़ायें. न केवल
बढ़ायें, बल्कि बढ़ाते रहने की चिन्ता भी करें, ठीक उसी तरह जैसे हम बैंक में रखे पैसे
की चिन्ता करते हैं. खूब हंसे और दूसरों को हंसायें, बस हंसी न उड़ायें किसी की भी.
(नई दुनिया के लिये लिखे, और प्रकाशित बहुत सारे लेख इकट्ठे हो गये हैं, सो सोचती हूं यहां पोस्ट कर दूं, ताकि ब्लॉग पर आने-जाने का सिलसिला जमा रहे)
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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