बुधवार, 23 मई 2018


हथेली से बादल को छूने के अरमां...!


क्या हार में, क्या जीत में,
किंचित नहीं भयभीत मैं,
संघर्ष पथ पर जो मिले,
यह भी सही, वह भी सही
रसोई में जगह थोड़ी कम है चाची. दो फुट लम्बाई और होती, तब सही होता. चाय के प्यालों को सिंक के दूसरी ओर सरकाती, प्रेमाबाई ने ज़रा खिन्न अवाज़ में कहा. प्रेमाबाई की बात मन स्वीकार करने ही वाला था कि परात में आटा निकालतीं पाठक चाची का स्वर मेरे कानों में पड़ा-
अरे! कहां कम है? खूब जगह है. तुम्हारा काम रुक रहा क्या? हमारा काम रुक रहा? सारे काम हो रहे न? घर में पंद्रह लोग हैं अभी और इसी रसोई से सबका खाना बन पा रहा न? फिर काहे की कमी? कुछ कम नहीं है. खूब है. जगह ही जगह है...
प्रेमाबाई की बात से अचानक ही बोझिल हुआ मन, खट से खिल गया. लगा एक नितांत अनपढ़ महिला की सोच कितनी सकारात्मक है! कितनी खूबसूरती से उसने उस छोटी सी जगह को बड़ा बना दिया! ज़ाहिर है- दोष उस जगह के छोटे होने में नहीं, बल्कि हमारी सोच में है. किसी भी चीज़ को छोटा या बड़ा हमारा नज़रिया बनाता है. असल में हमने असंतोष को अपना स्थायी भाव बना लिया है. अपने काम से असंतुष्ट, भोजन से असंतुष्ट, पहनावे से असंतुष्ट और सबसे ज़्यादा दूसरों के रवैये से असंतुष्ट. फ़लाने ने ऐसा कहा- क्यों कहा होगा? ज़रूर तंज किया होगा... वो शायद हमारी सफलता से चिढ़ता है. उसे हमारे रहन-सहन से ईर्ष्या है...आदि-आदि. ऐसी बातें सोचते हुए हम खुद कितनी नकारात्मकता से भर जाते हैं, कभी सोचा है? दूसरे ने भले ही सहज भाव से कुछ कहा हो, लेकिन उस बात के दूसरे-तीसरे मतलब निकालने की आदत सी होती जा रही हमारी. न केवल मतलब निकालने की, बल्कि नकारात्मक मतलब निकालना शगल सा हो गया है. कार्यस्थल पर यदि दो लोग आपस में बात कर रहे हों, वो भी धीमी आवाज़ में, तो पहला व्यक्ति यही सोचता है कि ज़रूर ये दोनों उसकी बुराई कर रहे होंगे. यानी उसने खुद को ही बुराई करने के लायक़ समझ लिया! कभी ये भी किसी ने सोचा, कि अगले व्यक्ति उसकी तारीफ़ कर रहे होंगे? बुराई करने की बात सोच के उसने अपने दिमाग़ को उथल-पुथल के हवाले कर दिया. यदि वहीं तारीफ़ की बात सोची होती तो कितना सुकून होता उस दिमाग़ में! आम ज़िन्दगी में भी हमने अपने ही लोगों के प्रति ऐसी सोच बना ली है कि हर व्यक्ति खुद के ख़िलाफ़ नज़र आने लगा है.
आम ज़िन्दगी से असंतुष्ट व्यक्ति हर बात से असंतुष्ट होता है. उसे जितना मिला, उससे संतुष्ट होने की जगह उसे हमेशा शिक़ायत बनी रहती है कि कम मिला. या उसका भाग्य ही खराब है. जबकि ग़ौर तो उसे अपनी कोशिशों पर करना चाहिये था. अकर्मण्य व्यक्ति कोशिश की जगह भाग्य को दोषी मानने लगते हैं. जबकि भाग्य का निर्माण तो हमारा कर्म करता है. ऐसे व्यक्ति अपने घर में भी गज़ब नकारात्मक ऊर्जा का संचार करते हैं. नतीजतन, पत्नी, बच्चे सब सहमे-सहमे से रहते हैं. उन्हें भी अपना भाग्य ही खराब लगने लगता है. वहीं चंद लोग ऐसे भी हैं, जो अपनी कमज़ोर आर्थिक स्थिति के बाद भी खुश-संतुष्ट दिखाई देते हैं. जैसे हमारी पाठक चाची. कहने को वे हमारे घर में खाना बनाती हैं, लेकिन मन से वे बहुत धनी हैं. सुविचारों की एक ऐसी पोटली उनके पास है, जो उन्हें और उनसे जुड़े लोगों को निराश नहीं होने देती. ज़िन्दगी में आई हर मुश्क़िल का सकारात्मक पहलू उनके पास मौजूद है. इस बढ़ती उमर में भी काम करना उनके लिये अफ़सोस का नहीं बल्कि स्वाबलम्बन का वायस है.
जैसा खायें अन्न, वैसा होबे मन की तर्ज़ पर ही हम जैसा सोचते हैं, वैसा ही हमारा व्यक्तित्व भी बन जाता है. मेरी एक परिचिता हैं, उनके पास शिक़ायतों का अम्बार है. ससुराल से शिक़ायत, मायके से शिक़ायत, पड़ोस से शिक़ायत, अपने काम से शिक़ायत.... कई बार लगता है इतनी शिक़ायतों के बीच कैसे कट रही इनकी ज़िन्दगी? उनकी शिक़ायतों का आलम ये, कि उनके बच्चे भी अपने विद्यालय, शिक्षकों और सहपाठियों की शिक़ायत करते दिखाई देने लगे हैं. इन कम उम्र बच्चों ने खूबियों की जगह कमियां खोजना सीख लिया है. हमारी ये आदतें बचपन को नकारात्मकता से भर रही हैं, इस ओर ध्यान देना बेहद ज़रूरी है. ज़रूरी है कि हम बच्चों को आधे खाली गिलास की जगह भरे गिलास का महत्व समझायें. खुश होना या दुखी होना हमारे हाथ में है. किसी एक बात पर ही हम खुश हो सकते हैं, और दुखी भी, फ़र्क़ केवल हमारे नज़रिये का होगा.
सकारात्मकता का गुण यदि सीखना है, तो एक नज़र प्रकृति पर डालनी होगी. पेड़-पौधों के बीच पहुंचते ही दिल-दिमाग़ कितने सुकून से भर जाता है न? क्यों? क्योंकि प्रकृति में कोई नकारात्मक गुण नहीं है. पेड़ों ने, पौधों ने नि:स्वार्थ भाव से केवल देना सीखा है. लेने की लालसा तो केवल इंसानी है. जहां केवल देने का भाव हो, वहां कैसी नकारात्मकता? चारों ओर सकारात्मक घेरा होता है. यही हमें सुकून देता है. लेकिन हमने कभी पौढों से कुछ सीखने की कोशिश की ही नहीं. ग्रीष्म से तपी, सूखी धरती पर पहली बारिश की बौछार पड़ते ही नन्हे-नन्हे पौधे अपनी बाहें फैला के खड़े हो जाते हैं रातोंरात. उन्हें कुचले जाने का खौफ़ नहीं होता. हम जैसा दूसरों को देते हैं, हमें ठीक वैसा ही वापस मिल जाता है. धरती में भी अगर हम अच्छा बीज बोयेंगे तो हमें एक स्वस्थ पौधा प्राप्त होगा. खराब बीज अव्वल तो पनपेगा ही नहीं, और यदि पनप भी गया तो स्वस्थ पौधे की उम्मीद, उस बीज से नहीं होनी चाहिये. बच्चे भी बीज की तरह हैं. हम उनके दिमाग़ में जैसी खुराक डालेंगे, वे वैसे ही तैयार होंगे. बचपन से ही यदि हम उन्हें प्रेम और सद्भाव के साथ-साथ संतोष का पाठ पढ़ायें, तो युवावस्था में वे इसका उलट करेंगे, ऐसी उम्मीद न के बराबर है.
हमारे हौसलों का रेग-ए-सहरा पर असर देखो,
अगर ठोकर लगा दें हम तो चश्मे फूट जाते हैं
इस्मत ज़ैदी ’शिफ़ा’ का ये शेर मुझे कई बार याद आता है. खासतौर से हौसलापरस्त युवाओं को देखकर.
पिछले दिनों मेरा एक विद्यार्थी किसी प्रतियोगी परीक्षा में शामिल हुआ. लौट के उसने हंसते हुए बताया कि- मैं कुल पचास प्रश्नों के ही उत्तर दे सका. गणित के लगभग सभी सवाल ग़लत हो गये. लेकिन मुझे इससे बड़ी सीख मिली, कि जिस गणित से मैं बचता रहा, उससे पीछा छुड़ाना इतना आसान नहीं है. मुझे उससे भागना नहीं है. अब मैं पहले मन लगा के गणित की ही तैयारी करूंगा मैं खुश थी. एक बच्चे ने अपनी कमज़ोरी को पहचाना. एक असफलता ने उसे नैराश्य से नहीं भरा, बल्कि अपनी कमी को दूर करने के लिये प्रेरित किया. यदि यही सकारात्मक रवैया अपनाया जाये, तो वो दिन दूर नहीं, जब सफलता आपके कदम चूमेगी. ज़िन्दगी है तो सुख-दुख, सफलता-असफलता का सिलसिला भी अवश्यम्भावी है. अपने तमाम दुखों के हल खोजना ज़्यादा बेहतर है, बजाय उस दुख को पालने-पोसने के. हमारी असफलताएं भी हमें अपने आपको जांचने का मौक़ा देतीं हैं, बशर्ते की हम परिस्थितियों को दोषी न मानने लगें. नकारात्मकता के इस जंगल में हमें आशा कि किरण को बचाना ही होगा. मन में आसमान छूने का हौसला रखना ही होगा भले ही हम इस कोशिश में कई बार गिरें क्यों न. चिड़ियों को घोंसला बनाते देखा है न? कितनी बार उनके तिनके गिरते हैं. कई बार तो पूरा घोंसला ही उजाड़ दिया जाता है, लेकिन वे तब भी अपनी कोशिशें नहीं छोड़तीं. नतीजतन, घोंसला तैयार हो ही जाता है. लेकिन इंसानी फ़ितरत में निराशा बहुतायत है. और ये खुद की कोशिश से, अपनी सोच बदलने से ही आशा में तब्दील हो सकेगी.
एक कहानी मुझे याद आती है हमेशा- एक व्यक्ति ऑटो से रेल्वे स्टेशन जा रहा था. ऑटो की रफ़्तार सामान्य थी. एक कार अचानक पार्किंग से निकल कर रोड पर आ गयी. ऑटो ड्राइवर ने ब्रेक लगाया और कार ऑटो से टकराते-टकराते बची. कार चला रहे व्यक्ति ने गुस्से में ऑटो वाले को खूब बुरा भला कहा. गालियां तक दीं, जबकि ग़लती उसी की थी. ऑटो चालक बिना कोई बहस किये, क्षमा मांग के आगे चल दिया. ऑटो में बैठे व्यक्ति ने कहा- तुमने उसे ऐसे ही क्यों जाने दिया? कितना बुरा भला कहा उसने जबकि तुम्हारी ग़लती थी ही नहीं. ऑटो वाले ने सहजता से कहा- साहब, कुछ लोग कचरे से भरे ट्रक के समान होते हैं. ये तमाम कचरा अपने दिमाग़ में भर के चलते हैं. जिन चीज़ों की जीवन में कोई जरूरत नहीं होती, उसे भी मेहनत करके जोड़ते रहते हैं जैसे क्रोध, चिंता, निराशा, घृणा. जब उनके दिमाग़ में कचरा जरूरत से ज़्यादा हो जाता है तो वे उस बोझ को हल्का करने के लिये इसे दूसरों पर फेंकने का मौक़ा खोजते हैं. इसलिये मैं ऐसे लोगों को दूर से ही मुस्कुरा के विदा कर देता हूं. अगर मैने उनका गिराया कचरा स्वीकार कर लिया तो फिर मैं भी तो कचरे का ट्रक ही बन जाउंगा न? ऐसे लोगों के कारण मैं क्यों तनाव पालूं? कितनी सच्ची बात है ये! कोई भी झगड़ा बढ़ाने से ही बढ़ता है वरना एक अकेला व्यक्ति कब तक बकझक करेगा?
लोग भूल जाते हैं, कि ये ज़िन्दगी उन्हें एक बार ही मिली है, और वे इसे नरक बना रहे हैं. ज़िन्दगी बहुत खूबसूरत है. हम इसे अपनी सोच, और व्यवहार से और भी खूबसूरत बना सकते हैं. खाली पड़े मैदान में केवल घास-फूस पैदा होती है जो किसी काम की नहीं होती, जबकि खेतों में फसल के रूप में ज़िन्दगी लहलहा रही होती है. उसी तरह हमें भी अपने दिमाग़ को खाली मैदान नहीं बनाना है, यहां बोना है सकारात्मक विचारों की फसल, जो आने वाली पीढ़ियों को भी जीवनदान दे सके.
(31 दिसम्बर 2017 को अहा ज़िन्दगी पटना ( दैनिक भास्कर) में प्रकाशित आवरण कथा )
तस्वीर: गूगल सर्च से साभार

9 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (25-05-2018) को "अक्षर बड़े अनूप" (चर्चा अंक-2981) (चर्चा अंक 2731) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बहुत सुंदर लेख। साझा करने हेतु सादर आभार।

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  3. जिंदगी एक ही है और खूबसूरत है ये समझने में कई बार पूरी जिंदगी भी निकल जाती है ... पर जो समझ जाता है वो जी लेता है इसे ... रोचक पोस्ट ...

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  4. Bhut kubhsurti se aapne sabdo ko swara hai
    Hall hi me maine kuch blogs likhe hai aapse nivedan hai ki aap unhe pdhe aour mujhe sahi disha nirdesh kre dhnyawad
    https://designerdeekeshsahu.blogspot.com/?m=1

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