बातों वाली नाम से वन्दना अवस्थी दुबे की कहानियों का संकलन पंक्ति-पंक्ति, अक्षर-अक्षर आद्योपांत पढ़ा. कहानियां यदि स्वयं में इक्कीस नहीं, तो उन्नीस भी नहीं. पक्की बीस बैठती हैं. निश्चय ही यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि लेखिका भाषा की एक कुशल जादूगर है. हमारे जीवन की रोज़मर्रा की साधारण सी बातें/घटनाएं भाषायी जादू के प्रभाव में किस निपुणता से विस्तार पा के कहानी का रूप लेती हैं, इसकी प्रशंसा करनी ही पड़ेगी.
कहानी की भी तो अपनी लम्बी कहानी है. जो कभी सिर्फ़ कही और सुनी जाने वाली स्वयं में एक विधा थी और लोकरंजन करती थी ; कालान्तर में यह विधा कथ्य से पठ्य तक चल कर आई है जिसे उसकी उंगली पकड़ कर चलना सिखाया प्रेमचंद, मंटो, कृष्नचन्दर ने. इतना ही
नहीं, सिर्फ़ मनोरंजन करने वाले एक सीमित दायरे से भी उसे बाहर निकाल कर जन हितार्थ
संदेशवाहिनी भीबना दिया. हां, तब में और अब में एक साम्य मैं आज भी देखता हूं, और
वह है भाषायी कशीदाकारी से ठीक वैसा ही विस्तार देना जैसे रबर को कितना भी खींचो
वह अटूट बढ़ती चली जाती है. किस्सागोई भी रबर की तरह खींचकर पूरी रात सुनने वालों
को एकाग्र बांध कर रखती थी, तो आज भाषा की जादुई कशीदाकारी भी पाठक का टाइमपास
वगैर किसी बोरियत के करा ही देती है. यही कला है और वन्दना को कुशल कथाकार कहना
अनुचित नहीं है. क्यों अनुचित नहीं है? इसे जानने के लिये इन कहानियों की भाषा पर
दृष्ट डालें-
“बातों वाली गली की कहानियां न तो संस्कृतनिष्ठ भाषा की
दुरूहता से पाठक को प्रभावित करती हैं, और न ही उसमें भाषा का किंचित कोई
दारिद्र्य ही दिखाई देता है. वह तो साधारण बोलचाल की ऐसी हिन्दी है जिसमें लोक
कहावतें और मुहावरे सहज ही उसका सौंदर्य बढ़ा देते हैं. मुहावरे भी बलात ठूंसे नहीं
गये , सहज ही भाषा में ऐसे घुल गये जैसे दूध में पानी. जैसे- पहली कहानी –’ अलग
अलग दायरे’ में देखें-“ ...उफ़! सारी इज़्ज़त धुलवा कर ही दम लेंगे...” इज़्ज़त धुल जाना,
दम लेना जैसे मुहावरे कितनी स्वाभाविकता से समरस हुए हैं जो भाषा में चार चांद लगा
रहे हैं. यह कौशल प्रत्येक कहानी में यथास्थान देखा जा सकता है. भाषा में आंचलिक प्रभाव से जो सोंधी सुगन्ध आती है, वह
स्वयं में विशिष्ट है. कहानी “अहसास” में घर की बड़ी बहू को ’बड़की’ सम्बोधन रस घोलता है- “.....बड़की, परछन
का थाल तैयार किया या नहीं? दरवाज़े पर दुल्हन आ जायेगी तब करोगी?....” परछन जैसे ठेठ
शब्द देखते ही लगता है कि हमारी सभी आंचलिक बोलियां हिन्दी को समृद्ध बनाती हैं. इसी
प्रकार से ’करत-करत अभ्यास के..’ में
पात्र के यथानुसार भाषा का प्रयोग उल्लेखनीय है. सद्पात्र की हिन्दी जितनी शुद्ध
तो असद्पात्र की हिन्दी आंचलिकता से नगरीय बनाने का विफ़ल प्रयास भी देखते ही बनता
है- “..... फुल्ली के पापा काल बिहान भये गिर गये रहे अम्माजी.
एतना मना करते हैं उनें, सुन्तई नईं हैं.....” बघेली और
बुन्देली की मिली जुली मिठास कितनी सहजता से हिन्दी को यह रूप दे रहा है. हिन्दी
में आंचलिकता का रस घोलना आज नई बात नहीं है, फणीश्वरनाथ रेणु से भी पहले हिन्दी
को उंगली पकड़कर चलना सिखाने वाले मैथिलीशरण गुप्त की यह विरासत है-
“.......अंचल पट कटि में खोंस कछोटा मारे,
सीता माता आज नई धज धारे.......”
आंचलिक बोलियों ने अपने शब्द रूपी दूध पिलाकर हिन्दी का पोषण किया है. वे
हिब्न्दी की मातहत नहीं, निश्चय ही धाय माताएं हैं जो आज भी हिन्दी को पोषित कर
रहीं हैं. वन्दना की सद्य:कहानियां उसका प्रमाण है.
संकलन की कहानियों की कथावस्तु में बाल मनोविज्ञान है, सहजता व एकदम
स्वाभाविकता है जो संकलन की छोटी से छोटी कहानी से लेकर बड़ी से बड़ी कहानी को एक से
बढ़कर एक बना देती है. कहानी “नहीं चाहिये आदि को कुछ” में जो बाल
मनोविज्ञान है, वह स्वयं में अद्भुत है. एक विपन्न परिवार का बालक जिसका नाम आदि
है, वह एक सम्पन्न परिवार में आता-जाता रहता है. सम्पन्नता के वैभव की चकाचौंध
उसके विपन्नता के तिमिर में बालपन में जो प्रभाव डालती है वह इस कहानी के एक-एक
सम्वाद को जीवंत बना देता है. – “ मौली दी के बगीचे में पैसों का पेड़ लगा है क्या? ज़रूर लगा
होगा. उसी से तोड़ तोड़ के सामान खरीदते होंगे....” , “..... आदि को लगता
है काश! मौली की मम्मी उसकी मम्मी होतीं!.....” इसी प्रकार
बड़ी-बड़ी कहानियां भी रोचक हैं. नारी विमर्श से भरपूर हैं. इतनी मार्मिक कि हृदय को
छू जाती हैं.-
बड़ी बाईसाब हो या शिव बोल मेरी रसना घड़ी-घड़ी या फिर डेरा उखड़ने से पहले,
देशकाल की वर्तमान परिस्थियों में ये कहानियां राहत के साथ पथ प्रदर्शन करने में
सक्षम हैं. मुझे “बड़ी बाईसाब” ने अधिक प्रभावित करके झकझोर दिया है. लाड़-प्यार में
पाल-पोसकर जिस हृदय के टुकड़े को आज का आदमी विवाह करके विदा करता है तो बेटी के
भावी जीवन में सुख की अपेक्षा करता है. उसके लिये वह अपनी हैसियत से भी बढ़कर दान
दहेज देता है. तो क्या पैसे से सुख शान्ति खरीदी जा सकती है? इस कहानी ने हमारी
आंखें खोल दी हैं. कि पैसे से सुख शान्ति खरीदी नहीं जा सकती. ऐसी मार्मिक
कहानियां हृदय को छू जाने वाली हैं. ऐसी कहानियां लिखकर वन्दना ने इस धरती का, हम
सबका मान बढ़ाया है. वन्दना को असीम आशीर्वाद,
गुणसागर सत्यार्थी
कुण्डेश्वर, टीकमगढ़-म.प्र.
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 05-10-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2748 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
आभार आपका.
हटाएंबहुत अच्छी समीक्षा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया कविता जी.
हटाएंबहुत बहुत बधाई सुंदर समीक्षा के लिय बहुत सुन्दर लेख वंदना दी
जवाब देंहटाएंबहुत धन्यवाद संजय
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