शिशिर ने बताया की रोड के किनारे ये सामान शुक्रवार तक रखा रहता है। इस बीच यदि किसी व्यक्ति को इस सामान में से कुछ चाहिए तो वो उठा के ले जा सकता है। बाकी सामान को शनिवार को आने वाली म्युनिस्पल की गाड़ी डंप कर ले जाती है। टूटे-फूटे सामन की तरह बेरहमी से उठाते हैं और गाड़ी में पटकते जाते हैं। मेरा दिमाग तो चकरा गया। मुझे गोते खाता देख शिशिर ने बड़े प्यार से समझाया, "भाभी वे ऐसा केवल इसलिए करते हैं क्योंकि उनका मानना है की यदि नए मॉडल का टीवी आ गया है तो पुरानेटीवी को रखने से क्या फायदा? केवल जगह ही घेरेगा न वह....फिर भले ही टीवी एक साल पुराना ही क्यों न हो। हर दिन इलेक्ट्रोनिक में नया कुछ होता रहता है। नई तकनीक को आत्मसात करना ही वहां की संस्कृति है।
हमारे यहाँ जैसे नहीं की बीसों साल पुराना कबाड़ भी गले से लगाए बैठे हैं। इसलिए वहां देखिये, कुछ भी पुराना नहीं।कहीं कबाड़ नहीं। आते समय हम ख़ुद अपना सामान रोड के किनारे रख के आए हैं......."
अमरीकियों का सामान के प्रति निर्मोह मेरे लालच का कारण बन रहा था....सोच रही थी की काश मैं अमेरिका में होती तो पता नहीं कितना सामान समेट लेती.....
हमरिश्तों को भी तो ऐसे ही सहेजते हैं.....जितना पुराना रिश्ता , उतना मजबूत। हमेशा रिश्तों पर जमी धूल भी पोंछते रहो तो चमक बनी रहती है......फिर ये रिश्ते चाहे सगे हों या पड़ोसी से
शिशिर की बातों से शर्मिंदा होते हुए मैंने भी सोचा की आने दो दीवाली , मैं भी वर्षों से जोड़ा गया कबाड़ बाहर करती हूँ।
अंततः दीवाली भी आ गई। मैंने पूरे जोशो-खरोश से सफाई मुहिम संभाली। माया को ललकारा-" निकालो सब सामान अलमारियों से। पता नहीं कितना कबाड़ भरा पड़ा है । फेंको सब।"
माया ने मेरी बिटिया के कमरे की अलमारियों का सामान निकालना शुरू किया- बहुत से छोटे- बड़े पर्स, अलग-अलग डिजाइनों के बैग, ज्योमेट्री बॉक्स , कुछ बड़े-बड़े पॉलीथिन बैग एहतियात से सहेजे हुए से.....कार्ड बोर्ड के बड़े-बड़े डिब्बे जो सुतली से बंधे हुए थे , जिन्हें निश्चित रूप से कई सालों से मैं ही बांधती आरही हूँ।
माया ने पूछा-" दीदी, आप देखेंगी या सब फ़ेंक देना है?" मन नहीं माना। देखना शुरू किया........लगा यहाँ तो यादें बंधी पड़ीं हैं..................
हर साल मैं विधु ( मेरी बेटी) के तमाम सामान ज़रूरत मंदों को दे देती हूँ। बाई के बच्चों को हर साल ढेरों कपडे,स्कूल बैग, जूते, खिलौने और भी बहुत कुछ, लेकिन तब भी कुछ सामन ऐसा है जो मैं सहेज लेती हूँ।
पहला बण्डल खोला, तो उसमें तमाम वे ड्राइंग निकलीं जो उसने स्कूल के शुरूआती दिनों मेंबनाईं थीं, आड़ी-तिरछी लकीरें जो पहली बार खींचीं थीं......फिर बाँध दिया उसे, ज्यों का त्यों......
दूसरा बण्डल......देशबंधु के दिनों में लिए गए तमाम हस्तियों के साक्षात्कारों वाली डायरियां जिनकी अब कोई उपयोगिता नहीं क्योंकि वे प्रकाशित हो चुके हैं,......तमाम इनविटेशन कार्ड्स....तानसेन समारोह, खजुराहो नृत्योत्सव, अलाउद्दीनखां समारोह.......नाट्य समारोह, आकाशवाणी कंसर्ट, और भी पता नहींक्या-क्या....तीसरा बण्डल.......विधु के किचेन सेट, टी-सेट, बार्बी के कपडे, .............
विधु ने कहा रखे रहनेदो.....रख दिए वापस.....चॉकलेट के डिब्बे, जिन्हें उनकी सुंदरता के कारण रखा गया था, सोच के की किसी काम आयेंगे, जो आज तक किसी काम न आ सके, फिर सहेज दिए मिठाई का एक डिब्बा जो इतना खूबसूरत था , कि न मुझसे तीन साल पहले जब आया थे तब फेंका गया, न आज फेंक सकी।
कुछ देने लायक सामान आज भी दिया, लेकिन जो सहेजा था वो वहीं रह गया.............विधु की अलमारी फिर ज्यों की त्यों सामान से भर गई थी। बस फ़र्क सिर्फ़ इतना था की हर सामान पर से धूल हटा दी गई थी। सब कुछ फिर चमकने लगा था.................
मन में कोई शर्मिंदगी भी नहीं थी, कबाड़ न फेंक पाने की। पता नहीं क्यों सामान सहेजते-सहेजते मुझे रिश्ते याद आने लगे.....................
हमरिश्तों को भी तो ऐसे ही सहेजते हैं.....जितना पुराना रिश्ता , उतना मजबूत। हमेशा रिश्तों पर जमी धूल भी पोंछते रहो तो चमक बनी रहती है......फिर ये रिश्ते चाहे सगे हों या पड़ोसी से.....लगा ये विदेशी क्या जाने सहेजना ...... न सामान सहेज पाते हैं न रिश्ते......
"दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं "
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (16-10-2017) को
जवाब देंहटाएं"नन्हें दीप जलायें हम" (चर्चा अंक 2759)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार
हटाएंबहुत सुन्दर.
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया.
हटाएंबहुत आभार आपका.
जवाब देंहटाएंवंदना जी, जो सामान हमारे काम का नही है उसे निकालना जरूरी है। सामान निर्जीव वस्तु है उसकी तुलना हम रिश्तों से नही कर सकते ऐसा मुझे लगता है।
जवाब देंहटाएंपता नहीं ज्योति जी. मेरा तो निर्जीव वस्तुओं से भी इंसानों जैसा ही रिश्ता है :)
हटाएंसच में मुझ से भी नहीं होता मुशीर की बचपन से ले कर आज तक की कॉपी , किताब रखी हुई है ,मेरे घर में भी जाने कितने कार्टन तो किताबों के हैं मुशीर के बचपन के खिलौनों के हैं , जो प्रोजेक्ट्स उस ने स्कूल में बनाए थे वो हैं , फेंकते ही नहीं बनता ।
जवाब देंहटाएंवही हाल यहां है :)
हटाएंबहुत सुंदर लिखा ....
जवाब देंहटाएंयादों की न कोई कीमत होती है न कोई बोझ !
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया कहानी ! मैंने भी देखा वहां ! बेटे का घर तीसरी मंजिल पर था ! लिफ्ट में discarded समान की सूची लगा देते थे लोग और सामान को नीचे डंपिंग एरिया में रख आते थे ! जिसे ज़रुरत होती थी उठा लेता था ! मेरे बेटे ने भी टी वी नया लिया था ! पुराना टी वी उसने भी नीचे पहुंचा दिया ! दूसरे दिन लिफ्ट में एक स्लिप लगी हुई थी जिसमें उसी टीवी के रिमोट की रिक्वेस्ट थी कि जिसने टी से discard किया है वह रिमोट भी discard कर देता तो लेने वाले के काम आ जाता ! बेटे ने तुरंत रिमोट भी रख दिया नीचे ! वहां लोगों को किसी चीज़ से मोह नहीं होता ! हम लोग ही एक एक चीज़ कलेजे से लगाए रहते हैं ! मेरे पास ऐसी चीज़ों का अम्बार है !
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