शुक्रवार, 27 अक्टूबर 2017

किस्सों वाली गली है ये - गंगाशरण सिंह


इंतज़ार  का फल मीठा होता है, आज साबित हुआ। हर रोज़ देखती थी कि गंगा शरण जी ने लिखा क्या? मित्रों में चन्द मित्र ऐसे होते हैं जिनकी टिप्पणी विश्वसनीय होती है। आप ऐसे ही मित्र और सजग पाठक हैं। किसी भी लेखक की पुस्तक पर इतनी विस्तृत समीक्षा, उसे किस तरह आंदोलित करती है ये केवल वही समझ सकता है जो इस अनुभव से गुज़र चुका हो। अपने व्यस्तम समय में से आपने इतना समय किताब के लिए चुराया, ये मेरा सौभाग्य है। ऐसे सुहृद मित्र को धन्यवाद कहना बेमानी है।
"रुझान पब्लिकेशन से 2017 में प्रकाशित "बातों वाली गली" वंदना अवस्थी दुबे का पहला कहानी संग्रह है। अलग अलग विषयों के इतने किस्से इस किताब में शामिल हैं कि इसका नाम किस्सों वाली गली भी हो सकता था। विषयों का वैविध्य ये दर्शाता है कि लेखिका के पास जीवन अनुभवों की कमी नही है और वो अपने आसपास की चीजों और घटनाओं को कितनी सजगता से अपने अवचेतन में सहेजती हैं। संग्रह की प्रत्येक कहानी असाधारण नही है किंतु एक गुण हर रचना में मौजूद है और वो है पठनीयता जो किसी भी कहानी का अनिवार्य तत्व है। अधिकांश कहानियों का विषय और प्रस्तुति आश्वस्तिकारक है। जिस नारी विमर्श का ज़िक्र भूमिका में हुआ है उसकी मात्रा भी काफी संतुलित है। कुछ स्वनामधन्य लेखकों/ लेखिकाओं की तरह उनके नारी पात्र न तो हर जगह क्रान्ति का झंडा लेकर खड़े होते हैं और न ही प्रगतिशीलता के नाम पर कहीं भी कपड़े उतारने लगते हैं। ये पात्र एक सीमा तक अनुचित बातों या परिस्थितियों को सहन करते हैं और फिर एक दिन साहस करके अपनी नियति को बदलने के प्रयास में लग जाते हैं।
"नहीं चाहिए आदि को कुछ" एक बच्चे के मनोविज्ञान पर केंद्रित अच्छी कहानी है। गरीब घर का आदि अपनी धनवान दोस्त के सुख सुविधाओं से लैस जीवन को देखकर प्रायः दोनों घरों की तुलना करता रहता है। एक दिन किसी दुर्घटना के कारण उसका पूरा दिन अपने उसी दोस्त के घर बीतता है। अपने घर जैसा स्वच्छन्द वातावरण न पाकर वहाँ के अनुशासित माहौल में शाम होते होते वो ऊब जाता है।
इसी तरह की एक और रोचक कहानी "प्रिया की डायरी" जिसमें प्रिया का पति उसे हमेशा ताना मारता रहता है कि आखिर क्या काम करती है वो दिन भर। पूरे दिन घर को सँभालने में व्यस्त वह गृहिणी एक दिन सबसे पहले अपने लिए नौकरी ढूँढती है और फिर घर के नियमों का नया प्रारूप पति के सामने रख देती है जिनके हिस्से में इतने काम आ जाते हैं कि पहले दिन ही उनकी ट्रेन पटरी से उतर जाती है और बच्चे स्कूल ही नहीं जा पाते हैं ।
"बड़ी हो गयीं हैं ममता जी" एक मार्मिक कहानी है जिसमें घर की इकलौती बहू लम्बी उम्र तक अपनी सास द्वारा हमेशा आवाज या आदेश दिए जाने से कभी कभी झुँझला उठती है। एक दिन रात को खाना खाकर सास सोयीं तो सोती ही रह गयीं। उनके न रहने पर बहू निश्चिन्त अनुभव करती है या नहीं ये आपको कहानी पढ़कर ही मालूम हो सकेगा।
संग्रह के आख़िर में तीन लंबी कहानियाँ हैं जिनकी विषय वस्तु का निर्वाह बड़ी कुशलता और विस्तार से हो सका है।
"डेरा उखड़ने से पहले" एक ऐसे परिवार की कहानी है जहाँ पिता फक्कड़ और निश्चिन्त टाइप के हैं। लड़कियों के विवाह की फ़िक्र न तो पिता को हैं , न स्वार्थी भाइयों को। और सब तो ठिकाने लग जाते हैं पर सरकारी नौकरी कर रही सबसे छोटी आभा के सामने शेष रह जाता है एक अनिश्चित एकाकी जीवन और हमेशा कोई न कोई फायदा उठाते परिवार के लोग। और फिर.....
"शिव बोल मेरी रसना घड़ी घड़ी" धर्मभीरु जनता की भावनाओं का फायदा उठाने वाले ठगों की अनोखी दास्तान है। हमारे समाज का एक काफी बड़ा तबका ऐसा है जो धर्म के नाम पर कहीं लुट सकता है और जरूरत पड़ने पर उन्माद की सीमा भी पार कर सकता है। ऐसा ही एक वर्ग वह भी है जो हर बात में उत्सुक हो ताक झाँक करने को जीवन का आनन्द मानता है। इसी स्वभाव के चलते एक दिन वहाँ के आस्थावान लोग उस उजड़ी हवेली के बेरोजगार मनचलों को साधू मान लेते हैं और फिर उन लफंगों के हाथों लुटने का दौर शुरू हो जाता है।
"बड़ी बाई साहब" नए और पुराने मूल्यों में निरंतर पैदा होते अंतराल और एक सशक्त महिला के सामजिक और पारिवारिक वर्चस्व की मानसिकता को बखूबी बयान करती है।
वंदना जी को इस कहानी संग्रह के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ। उनकी किस्सागोई हर कहानी के साथ बेहतर होती गयी है। उम्मीद करते हैं कि अगला संग्रह बहुत जल्द हमारे सामने होगा।

5 टिप्‍पणियां:

  1. अपनी पुस्तक पर प्रतिक्रिया पाना सचमुच बेहद सुखद अहसास देता है. आपको ख़ूब बधाई!

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  2. बहुत सुंदर वंदना दी पुस्तक के बारे मे इतना प्यारा विवेचन....पुस्तकों से परिचय कराती इस पोस्ट के लिए आभार ...

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