रविवार, 16 मार्च 2014

बड़ी मुश्किल है भाई…....



बड़ी मुश्किल है भाई….

कोई त्यौहार आया नहीं कि मेरा बचपन मुझ पर पहले हाबी होने लगता है. पता नहीं क्यों L
आज होली है तो मन फिर अपने बचपन की होलियों की तरफ़ भाग रहा. अब समझ में आ रहा कि बड़े लोग हम बच्चों को हमेशा ये क्यों कहते रहते थे, कि - अरे जब हम छोटे थे तो ऐसा होता था, वैसा होता था…… :( आज जब मैं बड़ों की श्रेणी में हूं, तो मैं भी तो वही कर रही…………. :(
लेकिन सचमुच, बहुत अच्छा लगता है गुज़रा ज़माना याद करना…… तब मैं बहुत छोटी थी लेकिन त्यौहारों पर होने वाली तैयारियों में पूरी तरह शरीक़ होना चाहती थी, और मेरी मम्मी हम बहनों को शामिल करती भी थीं. सबके हिस्से में काम बंटे होते थे. होली पर तो कुछ ज़्यादा ही तैयारियां होती थीं. बुंदेलखंड के हमारे शहर  में उस समय होली के दस दिन पहले से तैयारियां शुरु हो जाती थी. जितनी तैयारियां घर में होती उतनी ही बाहर भी होती रहतीं.
घर में दस दिन पहले गोबर के गोलाकार “बरूले” बनाने होते थे. गाय के गोबर से गोल-गोल पेड़ा बना के उसके बीच में छेद किया जाता था. ऐसे ११ या २१ बरूले बनाये जाते. दो दीपकों को जोड़ के उसके ऊपर गोबर लगा के नारियल बनाया जाता. ये सब सूखने के लिये छत के कोने में रख दिये जाते धूप में खूब कड़क हो जाने के लिये. मिट्टी का एक छोटा सा चूल्हा  हमारी चिंजीबाई ने बनाया था, जो पोर्टेबल था. कहीं भी उठा के रख लो. इस चूल्हे में होली की आग रखी जाती थी.
तो “बरूले बनाने का काम छोटी दीदी का था. मैने ज़िद की कि मुझे भी काम चाहिये, तो मम्मी ने कहा कि छोटी दी के साथ बरूले बनबाऊं… उफ़्फ़…. बरूले!!! मुझे तो गोबर छूने में बड़ी घबराहट होती थी  :(  मम्मी जानती थीं सो मेरे मज़े ले रहीं थीं. खैर मैने दीदी को इस बात के लिये मना लिया कि मैं तैयार बरूलों में लकड़ी की मदद से गोल-गोल छेद करती जाऊं  :(  अरे यार….  ये काम तो बहुत जल्दी हो गया अब क्या करूं? अन्दर गयी, तो देखा मम्मी लड्डू बना रही हैं, और बड़ी दीदी उनके साथ मदद कर रही हैं, यानि दोनों लोग लड्डू बना रही थीं. मैने भी बनवाने चाहे तो मम्मी ने बने हुए लड्डू थाली में गोलाइयों से सजाने को कह दिया L ये अलग बात है कि मुझे लड्डू कायदे से सजाने का मौका ही नहीं मिल रहा था, कारण, मम्मी खुद ही बनाये गये लड्डू सलीके से रख रही थीं. दूसरा काम करने की ज़िद की , तो मम्मी ने मठरी काटने का काम दे दिया. एक बड़ी और मोटी से मैदे की पूड़ी बेल के मुझे दे दी और कहा कि एक जैसे आकार की मठरी  काटूं. मुश्किल था ये काम, लेकिन अब जब मांगा था, तो करना भी था वो भी कायदे से. किया भी. लेकिन थोड़ी देर बाद देखा कि मम्मी ने मेरी काटी पूरी मठरी  बिगाड़ के फिर से गुंथे हुए मैदे में तब्दील कर दी थी :(
मन उदास हो गया  :( :( :(  कितने जतन से मठरी काटी थी. चाकू से हाथ बचा-बचा  के…फिर भी बिगाड़ दी गयी… बच्चों के काम की कोई कीमत ही नहीं L सोचा बाहर मोहल्ले के बड़े भैया लोगों की मदद करूं, जो होलिका लगाने की तैयारी कर रहे थे.
होलिका भी हमारे यहां एक ही दिन में नहीं लगायी जाती थी. बल्कि दस दिन पहले होली के लिये लकड़ियां जुटाने का काम शुरु हो जाता था. होलिका-दहन वाले दिन बड़े सबेरे से लड़के दहन-स्थल पर चारों तरफ़ से हरी-पीली झंडियां लगाते. होलिका भी खूब बड़ी सजायी जाती. आखिर लगभग पूरा शहर आता था यहां पूजा करने.
गोबर से बनाये गये बरूले इन दस दिनों में सूख जाते, तब उन्हें एक सुतली में पिरोया जाता.  माला बन जाती उनकी. हर घर में इस दिन तक तमाम पकवान भी बन के तैयार हो जाते. होलिका के पूजन में हर तरह का व्यंजन लोग लाते, बरूलों की माला लाते. कायदे से महिला-पुरुष सब होलिका का पूजन करते, पूरी होलिका बरूलों की मालाओं से ढंक जाती…लकड़ियां दिखनी बंद. और मुहूर्त के अनुसार होलिका-दहन होता. रात में ही लोग होली की आग में हाथ सेंकते, गेंहूं की बालियां और हरे चने के झाड़ भूनते.  सुबह पहला काम होता होली की आग ला के मिट्टी के चूल्हे में रखना. मम्मी इस चूल्हे में पहले से कंडे लगा के रखतीं. अब होलिका की आग से सुलगे इस चूल्हे पर दूध गरम किया जाता. हम बच्चों को पुराने कपड़े पहनाये जाते, और बाल्टियों में रंग घोल के रखा जाता. थाली भर भर गुलाल रखी जाती…..
और समय हो जाता होली-जुलूस निकलने का…हाथ ठेले पर रंग का बड़ा सा ड्रम और गुलाल. एक व्यक्ति ठेले पे खड़ा हो रंग उछालता, गुलाल उड़ाता और दूसरा ठेले को धकियाता इनके पीछे लोगों का हुजूम…सब रंगे-पुते. फिर जुलूस हर घर के बाहर रुकता , उस घर के पुरुष निकलते,जुलूस में शामिल हो जाते. महिलाएं मिठाई खिलातीं.
सब प्रसन्न. सब खुश. सबको त्यौहार का इंतज़ार.
अब देखती हूं, कि किसी त्यौहार का किसी को इंतज़ार ही नहीं होता. न पहले जैसी खुशी. बस एक छुट्टी मिलने की खुशी ही ज़्यादा समझ में आती है. पता नहीं ऐसा क्यों हो रहा जबकि हम सब तो वही हैं… लेकिन इतना पता है कि त्यौहारों में अब वो बात नहीं रही…
होली मुबारक़ हो आप सबको….  

37 टिप्‍पणियां:

  1. कितनी सारी यादें ताज़ा करा दीं. सच बच्चों के काम की कोई कीमत ही नहीं उन्हें यूँ ही सलाद काटो या आलू छीलो कह कर टरका दिया जाता था :(

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  2. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन होली की हार्दिक मंगलकामनाएँ - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  3. अब क्या कहें आज पता चला आप तो बचपन से ही ऐसी हैं :)

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  4. बचपन की यादों की गलियों में बिचरना अच्छा लगता है. सच्ची उत्सवधर्मिता की जगह छदम ने ले ली है .

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  5. बचपन की यादें ताजा हो गई, वो अलग बात, हमारी कुछ और थी .......... :)

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  6. कुछ बातें जो छूट गयी/मुझे याद आई... हम इन बरुलों को वईडया कहते थे, और इनमें दोनों अंगूठों और पहली उँगलियों को जोड़कर एक पान का आकार और बनाते थे , हार --कंकण (शकर से बने) भी चढाये जाते थे.सुबह जले हुए बरुए उसी आकार में राख में तब्दील हुए उठाकर घर में लाकर रख देते थे,मनन अभी अभी बता रहीं हैं कि बिच्छू काटने पर जहर उतारने में इस राख का इस्तेमाल करते थे ......

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    1. हां ठीक बता रही हैं मां..बरुए जलने के बाद भी अपना आकार नहीं खोते थे.

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  7. दरसल हम जिस काल में बच्चे थे वो काल स्वर्णिम काल था. हमारे बच्चे इन सब बातों को बकवास कहेंगे. आज भी हर त्यौहार में हम बैठकर याद करते हैं कि इस समय हम लोग ऐसे कर रहे होते थे. और हमारे बच्चों को यह सब अजूबा लगता है.. माइक्रोवेव, फ़ूड प्रॉसेसर के ज़माने में बच्चों को हाथ से पकाये व्यंजनों का स्वाद कहाँ पता!
    और अब तो हम घर बार छोड़कर परदेस में बस गये हैं. न यहाँ के तौर तरीके अपना सके, न अपने भूल पाए!! बस यादें रह गयी हैं!!

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  8. सच पता नहीं क्या हुआ सब लोगों को......या हम लोगों को!!
    किसी और को दोष क्यूँ देना...हम तो खुद ही भागने लगे हैं होली से....
    जब गुज़र जाती है या फिर इस पोस्ट की तरह कुछ पढने में आता है तब कसक उठती है...
    अब पक्का...अगले बरस धूम मचाएंगे.
    :-)
    अनु

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  9. परीक्षाएं , कंप्यूटर , मोबाइल आदि के ज़माने में बच्चों के पास हमारे बचपन जैसी यादें तो नहीं है . मुझे भी याद है कि बहुत बड़ी होली जलाई जाती थी . लोगो के पास खाली समय और स्थान दोनों ही होते थे . कोशिश तो करते ही है कि बच्चे इन परम्पराओं से जुड़े रहे !

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  10. सच है कि त्यौहारों में अब वो बात नहीं रही…समय के साथ साथ बहुत कुछ बदल रहा है..

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  11. ढेरों आशीष
    मेरा मनपसंद पर्व है होली
    आज भी बहुत हुड़दंग से होली में मस्ती करती हूँ

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  12. वंदना जी, ये शायद ज़िम्मेदारियों का बोझ हमारे लिये त्यौहारों की खुशियों को कम कर रहा है...शायद आजकल के बच्चे वहीं आनन्द ले रहे होंगे.
    वैसे एक सच इस शेर में पहले भी कह चुका हूं-
    रस्म तकल्लुफ़ बनकर रह गई अब तो यारो खाली ईद
    याद बहुत आती है मुझको अपने बचपन वाली ईद
    शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

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    1. जी शाहिद जी. हो सकता है आनंद ले रहे हों...लेकिन आनंद को वो सरंजाम दिखाई कहां देता है? शेर बहुत सुन्दर है.

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  13. त्योहार होते ही हैं, बचपन कुरेदने के लिये। रोचक संस्मरण।

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  14. दी हमारे यहां ब्रज भाषा का चलन है और बरूले को हम गुलिरया और चने के झाड़ को होरा बुलाते हैं।

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    1. सचेन्द्र जी, चने के झाड़ को तो यहां भी भुनने के बाद होरा ही कहते हैं.

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  15. यादें ताजा हो गई बचपन की सचमुच, बहुत अच्छा लगता है गुज़रा ज़माना याद करना.......... :)

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    1. हां संजय... वैसे तुम तो अभी अपने बचपन में ही हो लगभग :)

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    2. हूँ तो पर दीदी अपने बचपन की याद २० साल पुरानी मेरे लिए तो पुरानी याद ही है न

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