बहुत दिन हुए, कुछ लिखना न हो पा रहा...
आज एक पुरानी पोस्ट पढवाने का मन है. ये पोस्ट 2009 की है, सो निश्चित रूप से आप भूल चुके होंगे
मेरा बचपन जिस स्थान पर गुज़रा वह
मध्य-प्रदेश का एक छोटा लेकिन सुंदर सा क़स्बा है-नौगाँव। कस्बा आबादी के
लिहाज़ से लेकिन यह स्थान पूर्व में महत्वपूर्ण छावनी रह चुकी है। आज भी
यहाँ पाँच हज़ार के आस-पास आर्मी है और अपने क्लाइमेट के कारण आर्मी अफसरों
की आरामगाह है। लम्बी ड्यूटी के बाद अधिकारी यहीं आराम करने आते हैं। यहाँ
का मिलिट्री इंजीनियरिंग कॉलेज बहुत माना हुआ कॉलेज है। मगर मैं ये
सब क्यों बता रही हूँ? मैं तो कुछ और कहने आई थी....हाँ तो मैं कह रही थी
की हम जब नौगाँव पहुंचे तो हमारे यहाँ काम करने जो बाई आई उसका नाम चिंजी
बाई था। बहुत हंसमुख और खूबसूरत। पाँच बच्चे थे उसके। चिंजीबाई
की आदत थी की जब भी कोई त्यौहार निकल जाता तब लम्बी आह भर के कहती - "
दीवाली-दीवाली-दीवाली, लो दीवाली निकल गई।" इसी तरह -" होली-होली होली लो
होली निकल गई।"
पता नहीं क्यों आज जबकि ईद को निकले पाँच दिन हो गए हैं,बाई बहुत याद आ रही है। मन बार-बार ' "ईद -ईद-ईद लो ईद निकल गई" कह रहा है....कुछ उसी तरह आह भर के जैसे चिंजी बाई भरा करती थी। मेरी माँ दिल खोल कर देने वालों में हैं लेकिन हो सकता है की चिंजी बाई की हर त्यौहार पर अपेक्षाएं उससे भी ज़्यादा रहतीं हों, जिनके अधूरेपन का अहसास, उसकी उस लम्बी आह भरती निश्वास में रहता हो। क्योंकि इधर कई सालों से ईद पर ऐसा ही खाली पन मुझे घेरता है। और मन बहुत रोकने के बाद भी पीछे की ओर भाग रहा है.......
याद आ रहीं है वो तमाम ईदें, जिन पर हमने भी नए कपडे पहने थे...ईदी मिलने का इंतज़ार किया था.......मीठी सेंवई खाई थी..... और कभी सोचा भी नहीं था की ये त्यौहार मेरा नहीं है। शाम को हम पापा के साथ दबीर अली चाचा के घर सजे-धजे पूरे उत्साह के साथ जाते, सेंवई पर हाथ साफ़ करते और चाचा से ईदी ऐंठते। शम्मोबाजी से लड़ाई लड़ते और चच्ची से डांट खाते।
मेरी मम्मी जब पन्ना में बीटीआई की ट्रेनिंग कर रहीं थीं, तब वे एक मुस्लिम परिवार के यहां किरायेदार के रूप में रहीं वो परिवार भी ऐसा जिसने मेरी मां को हमेशा घर की बेटी के समान इज़्ज़त दी। इतना प्यार दिया जितना शायद मेरे सगे मामा ने भी न दिया हो। लम्बे समय तक हम जानते ही नहीं थे कि पन्ना वाले मामा जी हमारे सगे मामा नहीं हैं। चूंकि उनका नाम हमने कभी लिया नहीं और पूछने की कभी ज़रूरत समझी नहीं। वैसे भी वे हमारे मूर्ख-मासूमियत के दिन थे। किसी के नाम-काम से हमें कोई मतलब ही नहीं होता था। मां ने बताया ये तुम्हारे मामा-मामी हैं बस हमारे लिये ये सम्बोधन ही काफ़ी था।
रमज़ान के दौरान जब कभी मामी नौगांव आतीं तो मेरी मम्मी उनके लिये सहरी और इफ़्तार का बढिया इन्तज़ाम करतीं। साथ में खुद भी रोज़ा रहतीं। एक दिन मैने मामी को नमाज़ पढते देख पूछा- मामी आप मन्दिर नहीं जायेंगी? कमरे में ही पूजा कर लेंगीं? तो मेरी मामी ने बडे प्यार सेसमझाया था-’बेटा, भगवान का वास तो हर जगह है, वे तो इस कमरे में भी हैं तब मुझे मन्दिर जाने की क्या ज़रूरत है?" पता नहीं मेरे नन्हे मन पर इन शब्दों का क्या जादू हुआ कि आज भी मन्दिर जा कर या पूजा-घर में बैठ कर ही पूजा करने के प्रति मेरा लगाव हुआ ही नहीं।
हमारे ये दोनों परिवार सुख-दुख में हमेशा साथ रहे और आज भी साथ हैं। मामा के परिवार की एक भी शादी हमने चूकने नही दी और हमारे यहां के हर समारोह में वे सपरिवार शामिल हुए । आज भी दोनों परिवार उतने ही घनिष्ठ रिश्तों में बंधे हैं। आज रिश्तों की अहमियत ही ख़त्म होती जा रही है। हमारे पड़ोसी भी "चाचा-चाची " होते थे , आज सगे चाचा भी "अंकल" हो गए हैं। मुझे बड़ा अटपटा लगता है जब कोई भी बच्चा बताता ही की उसके अंकल की शादी है या उसे लेने अंकल आयेंगे....आदि । कई बच्चों को तो मैं समझाइश भी दे चुकी हूँ कि वे अपने चाचा को अंकल न कहा करें। लेकिन अब अपने आप को रोक लेती हूँ। किसी दिन कोई कह न दे कि 'आप कौन होती हैं हमारे संबोधनों में संशोधन करने वालीं?'
बात ईद से शुरू की थी और रिश्तों पर ख़त्म हो रही है, मन भी कहाँ-कहाँ भटकता है!
तो बात ईद की कर रही थी तो आज ईद हो या दीवाली या कोई और त्यौहार, वो पहले वाली बात रही ही नहीं। त्योहारों को लेकर उत्साह जैसे ख़त्म होता जा रहा है। रस्म अदायगी सी करने लगे हैं लोग। कोई कहे की मंहगाई के कारण ऐसा हुआ हा तो मैं यह बात सिरे से खारिज करूंगी। जितनी मंहगाई है उतनी ही तनख्वाहें भी तो हैं। पहले की कीमतें कम लगतीं हैं तो वेतन कितना होता था? तब भी लोग इतने उत्साह के साथ हर त्यौहार का इंतज़ार क्यों करते थे? आज हमारे अपने मन उत्साहित नहीं हैं। शायद माहौल का असर हम पर भी पड़ने लगा है।
आज एक पुरानी पोस्ट पढवाने का मन है. ये पोस्ट 2009 की है, सो निश्चित रूप से आप भूल चुके होंगे
गुजरना ईद का.........
पता नहीं क्यों आज जबकि ईद को निकले पाँच दिन हो गए हैं,बाई बहुत याद आ रही है। मन बार-बार ' "ईद -ईद-ईद लो ईद निकल गई" कह रहा है....कुछ उसी तरह आह भर के जैसे चिंजी बाई भरा करती थी। मेरी माँ दिल खोल कर देने वालों में हैं लेकिन हो सकता है की चिंजी बाई की हर त्यौहार पर अपेक्षाएं उससे भी ज़्यादा रहतीं हों, जिनके अधूरेपन का अहसास, उसकी उस लम्बी आह भरती निश्वास में रहता हो। क्योंकि इधर कई सालों से ईद पर ऐसा ही खाली पन मुझे घेरता है। और मन बहुत रोकने के बाद भी पीछे की ओर भाग रहा है.......
याद आ रहीं है वो तमाम ईदें, जिन पर हमने भी नए कपडे पहने थे...ईदी मिलने का इंतज़ार किया था.......मीठी सेंवई खाई थी..... और कभी सोचा भी नहीं था की ये त्यौहार मेरा नहीं है। शाम को हम पापा के साथ दबीर अली चाचा के घर सजे-धजे पूरे उत्साह के साथ जाते, सेंवई पर हाथ साफ़ करते और चाचा से ईदी ऐंठते। शम्मोबाजी से लड़ाई लड़ते और चच्ची से डांट खाते।
मेरी मम्मी जब पन्ना में बीटीआई की ट्रेनिंग कर रहीं थीं, तब वे एक मुस्लिम परिवार के यहां किरायेदार के रूप में रहीं वो परिवार भी ऐसा जिसने मेरी मां को हमेशा घर की बेटी के समान इज़्ज़त दी। इतना प्यार दिया जितना शायद मेरे सगे मामा ने भी न दिया हो। लम्बे समय तक हम जानते ही नहीं थे कि पन्ना वाले मामा जी हमारे सगे मामा नहीं हैं। चूंकि उनका नाम हमने कभी लिया नहीं और पूछने की कभी ज़रूरत समझी नहीं। वैसे भी वे हमारे मूर्ख-मासूमियत के दिन थे। किसी के नाम-काम से हमें कोई मतलब ही नहीं होता था। मां ने बताया ये तुम्हारे मामा-मामी हैं बस हमारे लिये ये सम्बोधन ही काफ़ी था।
रमज़ान के दौरान जब कभी मामी नौगांव आतीं तो मेरी मम्मी उनके लिये सहरी और इफ़्तार का बढिया इन्तज़ाम करतीं। साथ में खुद भी रोज़ा रहतीं। एक दिन मैने मामी को नमाज़ पढते देख पूछा- मामी आप मन्दिर नहीं जायेंगी? कमरे में ही पूजा कर लेंगीं? तो मेरी मामी ने बडे प्यार सेसमझाया था-’बेटा, भगवान का वास तो हर जगह है, वे तो इस कमरे में भी हैं तब मुझे मन्दिर जाने की क्या ज़रूरत है?" पता नहीं मेरे नन्हे मन पर इन शब्दों का क्या जादू हुआ कि आज भी मन्दिर जा कर या पूजा-घर में बैठ कर ही पूजा करने के प्रति मेरा लगाव हुआ ही नहीं।
हमारे ये दोनों परिवार सुख-दुख में हमेशा साथ रहे और आज भी साथ हैं। मामा के परिवार की एक भी शादी हमने चूकने नही दी और हमारे यहां के हर समारोह में वे सपरिवार शामिल हुए । आज भी दोनों परिवार उतने ही घनिष्ठ रिश्तों में बंधे हैं। आज रिश्तों की अहमियत ही ख़त्म होती जा रही है। हमारे पड़ोसी भी "चाचा-चाची " होते थे , आज सगे चाचा भी "अंकल" हो गए हैं। मुझे बड़ा अटपटा लगता है जब कोई भी बच्चा बताता ही की उसके अंकल की शादी है या उसे लेने अंकल आयेंगे....आदि । कई बच्चों को तो मैं समझाइश भी दे चुकी हूँ कि वे अपने चाचा को अंकल न कहा करें। लेकिन अब अपने आप को रोक लेती हूँ। किसी दिन कोई कह न दे कि 'आप कौन होती हैं हमारे संबोधनों में संशोधन करने वालीं?'
बात ईद से शुरू की थी और रिश्तों पर ख़त्म हो रही है, मन भी कहाँ-कहाँ भटकता है!
तो बात ईद की कर रही थी तो आज ईद हो या दीवाली या कोई और त्यौहार, वो पहले वाली बात रही ही नहीं। त्योहारों को लेकर उत्साह जैसे ख़त्म होता जा रहा है। रस्म अदायगी सी करने लगे हैं लोग। कोई कहे की मंहगाई के कारण ऐसा हुआ हा तो मैं यह बात सिरे से खारिज करूंगी। जितनी मंहगाई है उतनी ही तनख्वाहें भी तो हैं। पहले की कीमतें कम लगतीं हैं तो वेतन कितना होता था? तब भी लोग इतने उत्साह के साथ हर त्यौहार का इंतज़ार क्यों करते थे? आज हमारे अपने मन उत्साहित नहीं हैं। शायद माहौल का असर हम पर भी पड़ने लगा है।
वन्दना जी, आपकी इस पोस्ट का मर्म मैं समझ सकता हूँ.. मैं स्वयम ऐसे पारिवारिक माहौल में पला बढा हूँ, जब पिता जी के तीन दोस्तों का ये दावा हुआ करता था कि वर्मा नहीं तो ईद नहीं.. और जब मेरे पाकिस्तानी दोस्तों ने हमारे परिवार के साथ दीवाली मनाई यह कहते हुये कि दीवाली हमने सिर्फ हिन्दी फ़िल्मों में ही देखी है, आज आपके साथ दीवाली मनाते हुये लगा कि इसका मज़ा कितना है!!
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एक अनुरोध वन्दना जी! आपलोग ब्लॉग की नींव रही हैं, इसलिये कम ही लिखें मगर नियमितता बनाए रखें!
सलिल जी, अब पक्का लिखूंगी. महीने में एक पोस्ट तो हर हाल में..वादा है मेरा.
हटाएंपोस्ट पुरानी हो सकती है पर ऐसी स्मृतियाँ सदा नई ही रहती हैं ।
जवाब देंहटाएंसही है...
हटाएंयादें जब भी दुहराएँ जाएँ , सदैव एक नयी बात उभर कर सामने आती है। आज भी बड़े शहरों की बात छोडो छोटी जगह में सब रिश्तों के नाम से ही जाने जाते हैं। कोई चाचा , कोई भाई साहब , चाची , भाभी ही पड़ोसियों को कहा जाता है। जब से घर में अंकल और आंटी घुसे हैं रिश्तों की गहराई भी काम होती जा रही है।
जवाब देंहटाएंहां दीदी... :(
हटाएंईद-ईद-ईद लो अब ईद भी निकल गई:)
जवाब देंहटाएंतो क्या हुआ, तीज-तीज-तीज अभी बाकी है...वो भी बड़का वाला; निर्जला अब उसका आनन्द लेंगे।
हां और फिर कहेंगे, तीज-तीज-तीज...लो तीज निकल गयी :)
हटाएंवाह मीठी सिवइयों ऐसी यादें ....
जवाब देंहटाएंअच्छी लगी न??
हटाएंपूरा दिल निकाल कर रख दिया है पोस्ट में, कहाँ कहाँ से भावनाएं गुजर गईं साफ़ नजर आ रहा है :)
जवाब देंहटाएंबेहद आत्मीय पोस्ट.
सच्ची शिखा... बहुत दिल से लिखी थी मैने...शुक्रिया भी.
हटाएंखुबसूरत यादें ....... दिल से लिखी गयी !!
जवाब देंहटाएंशुक्रिया मुकेश जी
हटाएंबहुत ही खूबसूरत और मार्मिक संस्मरण । खासतौर पर चिंजीबाई का हर मौके के गुजरजाने की बात कहना । यह महज एक वाक्य नही ,एक दर्द है वक्त के गुजर जाने का । वक्त के निरर्थक ही गुजर जाने का । मुट्ठी से सूखे रेत की तरह फिसल जाने का ।
जवाब देंहटाएंदिल से लिखी बातें दिल तक जातीं हैं ।
सचमुच गिरिजा जी...वक्त के गुज़र जाने का दर्द ही था वो..आभार.
हटाएंGood emotional and nostalgic. Jane kahan gaye woh din? aur phir "Woh kagaj kee kashti aur barish kaa paani................mujhe lauta do woh bachpan ke din.....
जवाब देंहटाएंबहुत आभार आपका. लेकिन बेनामी होने से मैं आपको सम्बोधित नहीं कर पा रही.
हटाएंऐसी यादें ....बहुत ही खूबसूरत और मार्मिक संस्मरण ।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया संजय
हटाएंत्योहारों का आनंद तो मिल कर मनाने में ही है .यह मुंबई में रहकर मुझसे ज्यादा कौन जान सकता है .यहाँ हर त्यौहार आता है और चुपके से गुजर जाता है. कुछ परिवार हैं, जिनके संग मिल कर रस्म पूर्ती हैं. फिर भी जब क्रिसमस पर अपनी फ्रेंड्स के यहाँ क्रिसमस लंच के लिए रिश्तेदारों का जमघट और गणपति पूजा में मराठी लोगों के यहाँ सारे रिश्तेदारों को जुटते देखती हूँ...तो कहीं कुछ कसक जाता है
जवाब देंहटाएंसही है रश्मि. त्यौहारों का मज़ा पूरे परिवार के साथ ही है.
जवाब देंहटाएंबात तो बिलकुल सही है तभी विचार बदल रहे है .सुन्दर
जवाब देंहटाएंउम्दा और बेहतरीन... आप को स्वतंत्रता दिवस की बहुत-बहुत बधाई...
जवाब देंहटाएंनयी पोस्ट@जब भी सोचूँ अच्छा सोचूँ
bahot hi sunder .........!!
जवाब देंहटाएंmn ke bhavon ki sundar abhiwyakti....
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