नहा-धो के तैयार हुए ही थे, कि पूरी मित्र मंडली घूम-घाम के लौट आई. झटपट नाश्ता हुआ, और सारे लोग एक बस और दो-तीन गाडियों में लद के हबीब तनवीर सभागार पहुंच गये.
सभागार के कॉरीडोर में सामने से ललित शर्मा जी आ रहे थे. एकदम सामने आ के खड़े हो गये, बोले- पहचाना मुझे वंदना जी? अब बोलिये, ललित जी को कौन न पहचान लेगा? उनके साथ ही नागपुर से तशरीफ़ लायीं संध्या शर्मा भी थीं. खूब खुशी हुई उनसे मिल के. खुशी इसलिये भी हुई, कि चलो, महिलाओं की संख्या में इज़ाफ़ा हुआ. वरना इतने लोगों में हम चार महिलाएं -शकुंतला शर्मा, शशि सोहन शर्मा, रचना त्रिपाठी और मैं ही दिखाई दे रहे थे. मनीषा पांडे सुबह छह बजे पहुंचने वाली थीं, लेकिन उनकी ऐन वक्त पर उनकी आंख लग गयी, और सेवाग्राम स्टेशन निकल गया... आगे किसी स्टेशन से वे वापस सेवाग्राम लौटीं और बारह बजे सभागार पहुंचीं.
यहां आज कार्यक्रम के दूसरे दिन के शेष तीन सत्र सम्पन्न होने थे. दूसरे दिन के पहले सत्र का विषय था-
" हिंदी ब्लॉगिंग और साहित्य " मुख्य वक्ता थे- डॉ. अरविंद मिश्र, अविनाश वाचस्पति, डॉ. अशोक मिश्र, डॉ. प्रवीण चोपड़ा, ललित शर्मा, शकुन्तला शर्मा, और मैं खुद ( यानि वंदना अवस्थी दुबे) थे. इस सत्र के संचालन का ज़िम्मा इष्टदेव सांकृत्यायन पर था, जिसे उन्होंने बखूबी निभाया.
यह एक खुली चर्चा थी, जिसमें सभागार में मौजूद छात्र/छात्राएं अपने सवाल पूछ सकते थे. कोई जिज्ञासा सिर उठाए तो उसे शांत करवा सकते थे, लेकिन छात्रों की ओर से जिज्ञासाएं कम ही उठीं.
पहले वक्ता के रूप में बोलते हुए मेरे भाईजी डॉ. अरविंद मिश्र ने कहा कि - " ब्लॉगिंग एक विधा है, लिहाजा इसे साहित्य की तमाम विधाओं में शामिल कर एक नयी विधा के रूप में देखा जाये. उन्होंने कुछ लोगों के द्वारा लम्बी-लम्बी पोस्ट लिखने पर भी आपत्ति जताते हुए छोटी पोस्ट लिखने की सलाह दे डाली. ये अलग बात है, कि मिश्र जी द्वारा ब्लॉगिंग को विधा का दर्ज़ा देने की बात का ज़ोरदार विरोध हुआ. कुछ लोग संकोचवश ये कहते भी दिखाई दिये कि- " हां ब्लॉगिंग को विधा माना जा सकता है,लेकिन इसमें समय लगेगा." हांलांकि ब्लॉग को विधा मानने की बात मेरे गले तो नहीं उतरी. "ब्लॉगिंग-विधा" पर जब जोरदार बहस छिड़ी थी, तभी दर्शक दीर्घा में बैठे हर्ष वर्धन त्रिपाठी ने उठ के सधे हुए शब्दों में ये कहते हुए कि ब्लॉग खुद को अभिव्यक्त करने का माध्यम मात्र है, लिहाजा इसे विधा नहीं माना जा सकता. जैसे अखबार खबरों को छापने का, टीवी कार्यक्रमों का ज़रिया मात्र हैं, वैसे ही ब्लॉग भी एक ज़रिया मात्र है. हर्ष जी के इस दो टूक सम्वाद को जोरदार तालियों का समर्थन मिला. दूसरे वक्ता अपने अविनाश वाचस्पति जी थे. वे अपने बोलने के प्रमुख बिंदु एक कागज़ पर नोट करके लाये थे, ताकि कोई भी महत्वपूर्ण मुद्दा रह न जाये! ठीक भी है. सब पता होना चाहिये कि क्या बोलना है. शुरु में तो अविनाश जी ब्लॉग को विधा मानने की बात पर सहमत होते से नज़र आये, लेकिन फिर बाद में उन्होंने खुद को इस मुद्दे से अलग कर लिया और ब्लॉग और साहित्य के बीच का रिश्ता बताने लगे. उन्होंने अपने ब्लॉगिंग के सफ़र के बारे में भी विस्तार से बताया.
अविनाश जी के बाद डॉ. अशोक मिश्र ने अपने ब्लॉगिंग के लम्बे अनुभवों की चर्चा की. उन्होंने अखबारों द्वारा अपनायी जा रही लेखक-रणनीति की भी चर्चा की कि किस तरह सम्पादक अपने पसंदीदा लेखकों को छापते हैं, और नये लेखक बहुत अच्छा लिखने के बाद भी नहीं छप पाते. अशोक जी कि इस बात का मैं तुरन्त खंडन करना चाहती थी, लेकिन दूसरे काम में व्यस्त होने के कारण नहीं कर पायी. उनकी ये बात मेरे गले नहीं उतरी. कारण, मैनेखुद बारह वर्षों तक उस समय के प्रदेश के एक प्रमुख समाचार पत्र में साहित्य सम्पादक का पद सम्हाला है, और पता नहीं कितने नये लेखकों को हर हफ़्ते छापा है, बिना किसी परिचय के. उनकी रचनाएं ही उनके प्रकाशन का कारण होती थीं. हो सकता है कि अब सम्पादकों में ऐसा पक्षपात का भाव ज़्यादा आ गया हो, या उस वक्त भी रहा होगा, लेकिन सबको एक साथ नहीं घसीटा जा सकता.
डॉ. प्रवीण चोपड़ा ने अपने विज्ञान ब्लॉग के बारे में जानकारी दी और बताया कि किस प्रकार उनके ब्लॉग से हिंदी में तमाम रोगों की जानकारियां नेट पर इकट्ठी हो रहीं.
मुम्बई से आये मनीष ने बताया कि उन्होंने कितनी उपयोगी शैक्षिक सामग्री ब्लॉग के ज़रिये हिंदी में उपलब्ध करायी है, कि आज तमाम शोधार्थी उस सामग्री को रिफ़रेंस के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं. उन्होंने ये भी सलाह दी कि, जब भी कोई ब्लॉग या कोई विद्यार्थी किसी सामग्री का इस्तेमाल करे तो उसका लिंक जरूर दे.
दुर्ग से आई शकुन्तला शर्मा ने हिंदी साहित्य के रसों और ब्लॉग पर उपलब्ध रसों की बढिया तुलना की. जीवन के चार रसों की भी उन्होंने सुन्दर व्याख्या की. अपनी बात का अन्त उन्होंने स्वयं की एक छोटी सी कविता से की, जो इस संगोष्ठी के लिये उन्होंने खास तौर से लिखी थी. शकुन्तला जी के बाद ललित शर्मा जी ने ब्लॉग, उस पर लिखा जा रहा साहित्य और खुद की ब्लॉग यात्रा का ब्यौरा दिया.
इस सत्र का समापन मेरे मुखारविंद से हुआ.
दूसरे सत्र में विद्यार्थियों को तमाम तकनीकी जानकारियां दी गयीं. विकीपीडिया, उसकी उपयोगिता, उसका सम्पादन जैसे तमाम गुर सिखाये गये.
तीसरे और समापन सत्र का संचालन सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी ने किया. इस सत्र में मनीषा पांडे ने जेंडर की समस्या को उठाया. हालांकि ये प्रस्तावित विषय नहीं था. स्त्री-विमर्श का स्थान भी नहीं था, तब भी उन्होंने अपनी बात कही और सटीक तरीके से रखने की कोशिश की. उनका कहना था कि उन्हें यहां की छात्राओं से ये जान के बड़ा अचरज हो रहा है कि यहां हॉस्टल से दस बजे के बाद लड़कियां बाहर नहीं घूम सकतीं! .............. मुझे मनीषा जी के इस अचरज पर बेहद अचरज हुआ कि क्या वे इस देश की विषम परिस्थियों को नहीं जानतीं? दिन दहाड़े बच्चियों के साथ दुष्कर्म हो रहे, तो रात दस बजे के बाद विश्वविद्यालय परिसर में कोई घटना घट जाये तो कौन ज़िम्मेदार होगा? अभिभावक उस वक्त नारी मुक्ति का नारा तो नहीं ही लगायेंगे, विश्वविद्यालय प्रबन्धन मुफ़्त में लापरवाह घोषित हो जायेगा......
कार्यक्रम के अन्त में कुलपति विभूति नारायण राय ने सार गर्भित भाषण दिया. सबसे महत्वपूर्ण घोषणा उन्होंने की ब्लॉग एग्रीगेटर बनाये जाने की, जिसकी मियाद पन्द्रह अक्टूबर २०१३ तय की गयी है.
तो इस सत्र के समापन के साथ ही हम सब गाड़ियों में लद के फिर नागार्जुन सराय के हो लिये......
( पिक्चर अभी बाकी है दोस्त..... )
सभागार के कॉरीडोर में सामने से ललित शर्मा जी आ रहे थे. एकदम सामने आ के खड़े हो गये, बोले- पहचाना मुझे वंदना जी? अब बोलिये, ललित जी को कौन न पहचान लेगा? उनके साथ ही नागपुर से तशरीफ़ लायीं संध्या शर्मा भी थीं. खूब खुशी हुई उनसे मिल के. खुशी इसलिये भी हुई, कि चलो, महिलाओं की संख्या में इज़ाफ़ा हुआ. वरना इतने लोगों में हम चार महिलाएं -शकुंतला शर्मा, शशि सोहन शर्मा, रचना त्रिपाठी और मैं ही दिखाई दे रहे थे. मनीषा पांडे सुबह छह बजे पहुंचने वाली थीं, लेकिन उनकी ऐन वक्त पर उनकी आंख लग गयी, और सेवाग्राम स्टेशन निकल गया... आगे किसी स्टेशन से वे वापस सेवाग्राम लौटीं और बारह बजे सभागार पहुंचीं.
यहां आज कार्यक्रम के दूसरे दिन के शेष तीन सत्र सम्पन्न होने थे. दूसरे दिन के पहले सत्र का विषय था-
" हिंदी ब्लॉगिंग और साहित्य " मुख्य वक्ता थे- डॉ. अरविंद मिश्र, अविनाश वाचस्पति, डॉ. अशोक मिश्र, डॉ. प्रवीण चोपड़ा, ललित शर्मा, शकुन्तला शर्मा, और मैं खुद ( यानि वंदना अवस्थी दुबे) थे. इस सत्र के संचालन का ज़िम्मा इष्टदेव सांकृत्यायन पर था, जिसे उन्होंने बखूबी निभाया.
यह एक खुली चर्चा थी, जिसमें सभागार में मौजूद छात्र/छात्राएं अपने सवाल पूछ सकते थे. कोई जिज्ञासा सिर उठाए तो उसे शांत करवा सकते थे, लेकिन छात्रों की ओर से जिज्ञासाएं कम ही उठीं.
पहले वक्ता के रूप में बोलते हुए मेरे भाईजी डॉ. अरविंद मिश्र ने कहा कि - " ब्लॉगिंग एक विधा है, लिहाजा इसे साहित्य की तमाम विधाओं में शामिल कर एक नयी विधा के रूप में देखा जाये. उन्होंने कुछ लोगों के द्वारा लम्बी-लम्बी पोस्ट लिखने पर भी आपत्ति जताते हुए छोटी पोस्ट लिखने की सलाह दे डाली. ये अलग बात है, कि मिश्र जी द्वारा ब्लॉगिंग को विधा का दर्ज़ा देने की बात का ज़ोरदार विरोध हुआ. कुछ लोग संकोचवश ये कहते भी दिखाई दिये कि- " हां ब्लॉगिंग को विधा माना जा सकता है,लेकिन इसमें समय लगेगा." हांलांकि ब्लॉग को विधा मानने की बात मेरे गले तो नहीं उतरी. "ब्लॉगिंग-विधा" पर जब जोरदार बहस छिड़ी थी, तभी दर्शक दीर्घा में बैठे हर्ष वर्धन त्रिपाठी ने उठ के सधे हुए शब्दों में ये कहते हुए कि ब्लॉग खुद को अभिव्यक्त करने का माध्यम मात्र है, लिहाजा इसे विधा नहीं माना जा सकता. जैसे अखबार खबरों को छापने का, टीवी कार्यक्रमों का ज़रिया मात्र हैं, वैसे ही ब्लॉग भी एक ज़रिया मात्र है. हर्ष जी के इस दो टूक सम्वाद को जोरदार तालियों का समर्थन मिला. दूसरे वक्ता अपने अविनाश वाचस्पति जी थे. वे अपने बोलने के प्रमुख बिंदु एक कागज़ पर नोट करके लाये थे, ताकि कोई भी महत्वपूर्ण मुद्दा रह न जाये! ठीक भी है. सब पता होना चाहिये कि क्या बोलना है. शुरु में तो अविनाश जी ब्लॉग को विधा मानने की बात पर सहमत होते से नज़र आये, लेकिन फिर बाद में उन्होंने खुद को इस मुद्दे से अलग कर लिया और ब्लॉग और साहित्य के बीच का रिश्ता बताने लगे. उन्होंने अपने ब्लॉगिंग के सफ़र के बारे में भी विस्तार से बताया.
अविनाश जी के बाद डॉ. अशोक मिश्र ने अपने ब्लॉगिंग के लम्बे अनुभवों की चर्चा की. उन्होंने अखबारों द्वारा अपनायी जा रही लेखक-रणनीति की भी चर्चा की कि किस तरह सम्पादक अपने पसंदीदा लेखकों को छापते हैं, और नये लेखक बहुत अच्छा लिखने के बाद भी नहीं छप पाते. अशोक जी कि इस बात का मैं तुरन्त खंडन करना चाहती थी, लेकिन दूसरे काम में व्यस्त होने के कारण नहीं कर पायी. उनकी ये बात मेरे गले नहीं उतरी. कारण, मैनेखुद बारह वर्षों तक उस समय के प्रदेश के एक प्रमुख समाचार पत्र में साहित्य सम्पादक का पद सम्हाला है, और पता नहीं कितने नये लेखकों को हर हफ़्ते छापा है, बिना किसी परिचय के. उनकी रचनाएं ही उनके प्रकाशन का कारण होती थीं. हो सकता है कि अब सम्पादकों में ऐसा पक्षपात का भाव ज़्यादा आ गया हो, या उस वक्त भी रहा होगा, लेकिन सबको एक साथ नहीं घसीटा जा सकता.
डॉ. प्रवीण चोपड़ा ने अपने विज्ञान ब्लॉग के बारे में जानकारी दी और बताया कि किस प्रकार उनके ब्लॉग से हिंदी में तमाम रोगों की जानकारियां नेट पर इकट्ठी हो रहीं.
मुम्बई से आये मनीष ने बताया कि उन्होंने कितनी उपयोगी शैक्षिक सामग्री ब्लॉग के ज़रिये हिंदी में उपलब्ध करायी है, कि आज तमाम शोधार्थी उस सामग्री को रिफ़रेंस के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं. उन्होंने ये भी सलाह दी कि, जब भी कोई ब्लॉग या कोई विद्यार्थी किसी सामग्री का इस्तेमाल करे तो उसका लिंक जरूर दे.
दुर्ग से आई शकुन्तला शर्मा ने हिंदी साहित्य के रसों और ब्लॉग पर उपलब्ध रसों की बढिया तुलना की. जीवन के चार रसों की भी उन्होंने सुन्दर व्याख्या की. अपनी बात का अन्त उन्होंने स्वयं की एक छोटी सी कविता से की, जो इस संगोष्ठी के लिये उन्होंने खास तौर से लिखी थी. शकुन्तला जी के बाद ललित शर्मा जी ने ब्लॉग, उस पर लिखा जा रहा साहित्य और खुद की ब्लॉग यात्रा का ब्यौरा दिया.
इस सत्र का समापन मेरे मुखारविंद से हुआ.
दूसरे सत्र में विद्यार्थियों को तमाम तकनीकी जानकारियां दी गयीं. विकीपीडिया, उसकी उपयोगिता, उसका सम्पादन जैसे तमाम गुर सिखाये गये.
तीसरे और समापन सत्र का संचालन सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी ने किया. इस सत्र में मनीषा पांडे ने जेंडर की समस्या को उठाया. हालांकि ये प्रस्तावित विषय नहीं था. स्त्री-विमर्श का स्थान भी नहीं था, तब भी उन्होंने अपनी बात कही और सटीक तरीके से रखने की कोशिश की. उनका कहना था कि उन्हें यहां की छात्राओं से ये जान के बड़ा अचरज हो रहा है कि यहां हॉस्टल से दस बजे के बाद लड़कियां बाहर नहीं घूम सकतीं! .............. मुझे मनीषा जी के इस अचरज पर बेहद अचरज हुआ कि क्या वे इस देश की विषम परिस्थियों को नहीं जानतीं? दिन दहाड़े बच्चियों के साथ दुष्कर्म हो रहे, तो रात दस बजे के बाद विश्वविद्यालय परिसर में कोई घटना घट जाये तो कौन ज़िम्मेदार होगा? अभिभावक उस वक्त नारी मुक्ति का नारा तो नहीं ही लगायेंगे, विश्वविद्यालय प्रबन्धन मुफ़्त में लापरवाह घोषित हो जायेगा......
कार्यक्रम के अन्त में कुलपति विभूति नारायण राय ने सार गर्भित भाषण दिया. सबसे महत्वपूर्ण घोषणा उन्होंने की ब्लॉग एग्रीगेटर बनाये जाने की, जिसकी मियाद पन्द्रह अक्टूबर २०१३ तय की गयी है.
तो इस सत्र के समापन के साथ ही हम सब गाड़ियों में लद के फिर नागार्जुन सराय के हो लिये......
( पिक्चर अभी बाकी है दोस्त..... )
इस सत्र का समापन मेरे "मुखार बिंद" से हुआ ?
जवाब देंहटाएंबेहतर हो जो उसे "मुखारविंद" लिखा जाये !
शुक्रिया.
हटाएंविधायी विवाद रोचक रहा, संशय से उत्पन्न, अन्ततः संशय से परे
जवाब देंहटाएंहां सचमुच :)
हटाएंसुंदर विवरण ...
जवाब देंहटाएंबधाई आपको !
धन्यवाद सतीश जी.
हटाएंपढ़ रहे है , चौचक है , किसी भी वाद की अतिवादिता के अच्छे उद्धरण का उल्लेख भी सही .
जवाब देंहटाएं:) :) पढ़ते रहो भाई...
हटाएंआपसब से मिलकर मुझे भी बहुत ख़ुशी हुई, एक दिन पहले ही भोपाल से लौटे थे इसलिए कुछ थकान थी नहीं तो कुछ देर और रुकते आप सबके साथ. विधायी विवाद सचमुच बहुत रोचक रहा, बहुत देर तक चर्चा में रहा. साथ हैं लिखिए आगे क्या हुआ
जवाब देंहटाएंसंध्या जी, मेरा भी मन था कि आप लोग रुकते कुछ और. कम से कम पबनार नदी हम साथ जाते.
हटाएंअब पिक्चर ही देखना चाहूंगा
जवाब देंहटाएंवह भी बाकी वाली पर
लिखने वाले निराश न हों
जितना लिखा जाएगा
उससे दोगुना पढ़ा जाएगा
मैं दो दो बार पढ़ता हूं जी
पढ़ने का दीवाना जो हूं।
बस आपई के भरोसे तो रीडरशिप बची है भाईजी.... :) पढने के लिये शुक्रिया तो है ही.
हटाएंसही जवाब दिया बाबा को . . :)
हटाएंजोरदार बहन ,मगर अपने पतिदेव से से तो मेरा परिचय ही नहीं कराया -बैड मैनर्स
जवाब देंहटाएंभाई जी, याद कीजिये २१ की सुबह नाश्ते के समय जब आप, संतोष जी और अविनाश जी साथ बैठे थे, तब मैने आप तीनों से उमेश जी का परिचय कराया था ... :( अब हम गुस्सा हो जायेंगे x-(
हटाएंसंशोधन:
जवाब देंहटाएंडॉ. प्रवीण पांडे ने अपने विज्ञान ब्लॉग के बारे में जानकारी दी-प्रवीण चोपड़ा थे वे
स्वयं के लिए मुखारविंद प्रयोग खटका
इष्टदेव सांस्कृत्यायन = सही शब्द सांकृत्यायन है
इतनी गलतियां -मेरा तो माथा चकरा रहा है बहन किस पत्र की साहित्य संपादक थीं आप? नाट फेयर!
भाई जी, व्यंग्य की भाषा समझा कीजिये. यहां मैने खुद पर व्यंग्य किया है मुखारविंद के ज़रिये...इत्ती सी बात न समझ पाये आप...हद्द हो गयी न? सांकृत्यायन ही लिखा है भाईजी, केवल गलतियां ढूंढने के चक्कर में माथा चकरा गया भाईजी आप का...थोड़ा आराम कर लें :)
हटाएंआश्चर्य पर आपका आश्चर्यचकित होना आपकी साफगोई जताता है. अच्छा लगा.
जवाब देंहटाएं:) :) :) शुक्रिया जी..
हटाएंis yatra ke aur bhi mod dekhne hai hame ,bahut hi badhiyaan ,
जवाब देंहटाएंबस ब्लॉग के साथ में रहो ज्योति, हम यात्रा के सारे मोड़ गिनवा देंगे :)
जवाब देंहटाएंBahut khoobsoorat reporting ki hai aapne Vandanaji.Ab maan liya ki aap sachmuch reporter theen , hain aur rahengi.Aap sabhi se mulakaat meri sabse badi uplabdhi rahi.Vidha katark bahut galat raha.Seedhi si baat hai sanchar madhyam to zariya hi rahega ,sahitya ka roop thode hi ban jayega.Siddharthji ka abhar jinhone mujhe aane ke liye aakhiri samay tak prerit kiya.Yeh sampreshan hai .Arvindji ki tarah meen mekh mat nikaliyega.
जवाब देंहटाएंआभार...
हटाएंshudhi:Vidha tark=vivaad, aabhaar
जवाब देंहटाएंरोचक विवरण
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया नीता.
हटाएंbahut mazaa aa raha hai padhne men ,,jaldi jaldi aur padhwaao
जवाब देंहटाएंagli baar tumhara aanchal pakad kar ham bhi saath ho lenge :)
हम तो इस बार ही चाहते थे कि तुम साथ चलतीं इस्मत :)
हटाएंबहुत ही रोचक विवरण..
जवाब देंहटाएंशुक्रिया महेश्वरी जी.
हटाएंजो पिक्चर अभी बाकी है वह कब आएगी?
जवाब देंहटाएंबस आज सिद्धार्थ जी :)
हटाएंरोचक
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