आज सुबह वर्धा से लौटी. पिछले दो दिनों की अविस्मरणीय यादें साथ ले के.
एक महीने पहले ही वर्धा जाने का रिज़र्वेशन करवा लिया था, लेकिन लौटने का टिकट और जाने का भी, दोनों ही वेटिंग में थे. १९ को निकलना था और टिकट १८ की शाम तक कन्फ़र्म नहीं.... सिद्धार्थ जी को बताया तो बोले, आ जाइये यहां प्रवीण जी ( प्रवीण पांडे) इंतज़ाम करेंगे. मन अब भी संकोच में था. पहली बार प्रवीण जी मिलेंगे और हम अपना काम ले के हाज़िर हों... मामला कुछ जम नहीं रहा था.
इसी ऊहापोह में १९ की ट्रेन निकल गयी जो बडे सबेरे थी. मन बहुत उदास था. वादा करके मुकर जाने की तक़लीफ़ उससे कहीं ज़्यादा थी. दिन उदासी में बीता, शाम को अपनी क्लास में गयी. ठीक सात बजे वर्धा से फोन आया- " मैम, आपकी गाड़ी कहां पहुंची अभी? मैं गाड़ी ले के आ रहा हूं." अब तो घड़ों पानी पड़ गया मेरे ऊपर. किसी प्रकार कहा- " मैं कल पहुंच रही हूं." क्लास जल्दी छोड़ दी. नीचे आ के उमेश जी से कहा कि मैं कितना खराब महसूस कर रही हूं. उमेश जी जैसे दरियादिल इंसान तत्काल बोले- " कोई बात नहीं, हम सुबह निकलते हैं इटारसी तक, ट्रेन में बर्थ मिल जायेगी, अगर तुम हिम्मत कर सको, तो चलो."
मैं तो ठहरी जन्मजात हिम्मती... फटाफट कपड़े बैग में रक्खे, और सुबह का इंतज़ार शुरु.
अगले दिन राजेन्द्रनगर-कुर्ला एक्सप्रेस पकड़ी, टीसी ने एसी थ्री में बर्थ भी दे दी. अब और क्या चाहिये? आराम से इटारसी पहुंचे. वहां से सेवाग्राम के लिये ट्रेन पकड़नी थी. केरला एक्सप्रेस का समय था लेकिन उसके विलम्ब से आने की सूचना मिली, सो हम साढ़े ग्यारह बजे राप्ती-सागर एक्सप्रेस में चढ गये. यहां भी किस्मत साथ दे गयी और एसी में बर्थ मिल गयी :)
सुबह छह बजे की जगह हमारी ट्रेन साढ़े सात बजे सेवाग्राम पहुंची. सिद्धार्थ जी का फोन आया कि हम सब सेवाग्राम घूमने जा रहे हैं बस से, तो आप लोग भी स्टेशन से ही हमारे साथ हों लें, ताकि ज्यादा समय साथ में गुज़ार सकें. अन्दर रेसीव करने के लिये गाड़ी खड़ी थी, और स्टेशन के बाहर सिद्धार्थ जी बस लिये खड़े थे :) खैर हमने बस के दरवाज़े पर पहुंच के सबसे माफ़ी मांगी, देर से आने के लिये और अब साथ में सेवाग्राम न जा पाने के लिये भी. असल में दो दिन का भागमभाग सफ़र करके तुरन्त नहाने का मन कर रहा था. ब्रश-फ्रश कुछ न किया था, सो सीधे गेस्ट हाउस जाना ही ठीक लगा.
एकदम हरे-भरे रास्ते के बीच से गुज़र के हमारी गाड़ी विश्वविद्यालय पहुंची...हरियाली देख के ही मन प्रसन्न हो गया. गेस्ट हाउस " नागार्जुन-सराय" देख के प्रसन्नता दोगुनी हो गयी. दरवाज़े पे पहुंचे तो वो हमें देख के अपनेई आप खुल गया. बेचारा! ज़बरदस्त कवायद कर रहा था, बार-बार खुलना-बन्द होना.... उमेश जी को उस पर तरस आने लगा था बाद में :) .
209 नम्बर का कमरा हमारा इन्तज़ार कर रहा था. शानदार कमरा, सभी सुविधाओं से युक्त. चाय पी के फटाफट नहाने घुसे . तैयार हो ही रहे थे कि नाश्ता लगने की खबर आ गयी. ( अब बाकी कल )
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बाबा नागार्जुन की शानदार प्रतिमा लॉन के बीच में. |
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सिद्धार्थ जी, रचना त्रिपाठी और मैं. |
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डॉ. शशि शर्मा, मैं, सिद्धार्थ जी और कार्तिकेय मिश्र |
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सिद्धार्थ जी को देख के कोई भी कह देगा कि संयोजक वही हैं :) |
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ये है नागार्जुन सराय... जहां हम सब ठहरे. |
बहुत खूब. .
जवाब देंहटाएंकल का इंतज़ार करेंगे ;)
बढ़िया.....................
जवाब देंहटाएंअगली कड़ी का इंतज़ार......
:-)
सादर
अनु
padh rahe hai
जवाब देंहटाएंक्रमवार रिपोर्ट रोचक है
जवाब देंहटाएंअगली कडियों का इंतजार
प्रणाम स्वीकार करें
Kaash maibhi aa pati..aap sabse mulaqaat to hoti!
जवाब देंहटाएंक्या कहें, जलन सी हो रही है तुम्हारी हिम्मत देख :). पर पढने में मजा आ रहा है ..जल्दी जल्दी लिखो.
जवाब देंहटाएंचकाचक लिखा है , अगली कड़ी की प्रतीक्षा .
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया जी
जवाब देंहटाएंसाड्डा कोई ज़िक्र नहीं वन्दना जी
जवाब देंहटाएंअभी तो हमने अपना तक ज़िक्र न किया अविनाश जी.... अब अगली आज की कड़ी लिख डालें, तब कहियेगा यही बात :)
हटाएं(:(:(:
हटाएंpranam.
shandaar............kash ham bhi kabhi pahunchen :)
जवाब देंहटाएंaanandmayi mangalmayi yatra , jagah to behad khoobsurat hai ,
जवाब देंहटाएंbahut badhiya ..himmat bahut ki tumne ..good job ..:) aage ka intjaar
जवाब देंहटाएंवाह।
जवाब देंहटाएंआप बड़ी जिन्दादिल हैं।
ज़िंदगी ज़िन्दादिली का नाम है.......... :)
हटाएंवाह।
जवाब देंहटाएंआप बड़ी जिन्दादिल हैं।
हम तो सेवा को तैयार थे, पर हमारा भाग्य इतना प्रबल न था कि आपकी सेवा में लग सकते।
जवाब देंहटाएंहाहा...मुझे तो लगता है कि आपकी मौजूदगी मात्र से रेल्वे की तत्काल सेवा डर गयी, और मेरा टिकट बुक हो गया :)
हटाएंहमारे साथ सेवाग्राम चलना था वंदना ! फोटो में तुम्हारी कमी खल रही है । वैसे हम दोनों ने तो एक कुशल फोटोग्राफर से एक सुन्दर सी तस्वीर खिंचवा ली है । अच्छा लिखी हो , बधाई ।
जवाब देंहटाएंहां दीदी, मेरा भी मन था लेकिन फिर वहां से लौट के हमें नहाने तक का समय न मिलता और सभागृह पहुंचने का आदेश हो जाता :)
हटाएंबढ़िया अंदाज़ रिपोर्टिंग का …आप दोनों से मिलकर बहुत अच्छा लगा
जवाब देंहटाएंअगली कड़ी का इंतज़ार.....
मुझे भी बहुत अच्छा लगा संध्या जी.
हटाएंबहुत बढ़िया जी
जवाब देंहटाएंशुक्रिया संजय
हटाएंवंदना जी, नागार्जुन बाबा की मूर्ति के बगल के लॉन में बैठे वाली हम लोगों की तस्वीर कहां गई :)
जवाब देंहटाएंबस अगली पोस्ट में केवल तस्वीरें ही होंगी, तब हम लोगों की ये तस्वीर भी होगी :)
जवाब देंहटाएंपोस्ट शुरू हुई ही थी कि हो गई ख़तम :-(
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