गरमियाँ शुरू हो गयीं ,
और शुरू हो गया यादों का सिलसिला ....
आप कहेंगे की गरमियों का यादों से क्या सम्बन्ध ? अरे सम्बन्ध है भाई
लेकिन कमाल ये है , कि यादें बस बचपन की ही साथ हैं। बचपन बीते पता नहीं कितने बरस हुए , लेकिन यादें ऐसे ताज़ा हैं जैसे कल की ही बात हो
जब हम छोटे थे, स्कूल में पढ़ते थे , तब सारी परीक्षाएं अप्रैल में होती थीं तीस अप्रैल को रिज़ल्ट , और फिर पूरे दो महीने की छुट्टियाँ . स्कूल खुलता था सीधे जुलाई में . छुट्टियाँ शुरू हों, उसके कुछ पहले ही हमारे ताऊ जी का फरमान आ जाता था अपने गाँव पहुँचाने का , लेकिन उनके देहांत के बाद कुछ सालों तक तो गाँव जाना होता रहा और फिर सब अपने-अपने तरीके से छुट्टियाँ मनाने लगे . अब हम लोग भी छुट्टियों में एकदम एक मई को ही नहीं निकल पड़ते थे . चूंकि हमारी मम्मी भी टीचर थीं , सो उन्हें भी छुट्टियाँ होने के बाद घर की तमाम व्यवस्थाएं करनी होती थीं मसलन साल भर के अनाज, मसाले रखवाना. आम का अचार बनाना वगैरह-वगैरह . अब मम्मी ये सारे काम निपटाने के बाद ही नाना के यहाँ जाती थीं . तब तक हम सब नौगाँव में ही धमाचौकड़ी मचाते थे.
यूं तो गरमियाँ मुझे कभी अच्छी नहीं लगीं , लेकिन उन दिनों इस मौसम के अलग ही मज़े थे. कच्ची अमियाँ , सूखे बेर, उबले बेर, बिरचुन , पकी इमली, लाल वाली बरफ , मलाई वाली बरफ , कुल्फी , बरफ का गोला , शाम को आई-स्पाई , सितौलिया , नमकपाला , और भी पता नहीं क्या-क्या .......
पिछले दिनों पके लाल-लाल बेर मैंने भी सुखाये. आज छुट्टी थी, तो उन सूखे बेरों को कुकर में उबाला और एकदम वैसा ही बनाया जैसा हमारी एक बूढ़ी अम्मा बेचती थी . सुबह से लगातार उन्हीं बूढ़ी अम्मा की याद आ रही थी तो सोचा की आप सबसे भी अपनी याद को बाँट लूं . ठीक किया न?
तो उन दिनों गरमियों की दोपहर में हमें सबसे ज्यादा इंतज़ार बेर वाली अम्मा का रहता था . दोपहर में मम्मी सोने गयीं और हम सब दबे पाँव दूसरे कमरे में , जो एकदम बाहर की तरफ था . असल में मेरी मम्मी फेरीवालों से लेकर कोई भी चीज़ खाना पसंद नहीं करती थीं। फिर उबले बेर??? राम-राम. गंदे पानी में उबाले होंगे कीड़े वाले होंगे, गन्दी जगह से इकट्ठे किये होंगे , बिना धोये उबले होंगे जैसे तमाम जायज कारण होते थे उनके पास . बेर वाली अम्मा भी शायद जानती थी कि उसे किस समय बेर बेचने निकलना चाहिए
दीदी लोग बातें कर रही होतीं , लेकिन कान सड़क की तरफ होते . मुझे खासतौर से कह दिया जाता कि आवाज़ सुने रहना , और मेरे कान एक-एक हाथ लम्बे हो जाते
दूर से आवाज़ सुनाई देती -
' ले लो बे sssssssssर . उबले मीठे बेर ले लो sssssss . "
कभी -कभी तो बेर वाली अम्मा के आवाज़ दिए बिना ही मुझे आवाज़ सुनाई देने लगती। कान बजने लगे थे मेरे
जब बेर वाली अम्मा आ जाती तो जल्दी से उसे बाउंड्री के अन्दर कर लिया जाता। फटाफट बेर के पत्ते बनवाये जाने लगते. पलाश के धुले बड़े-बड़े पत्ते टोकरी में एक और सजाये रहती थी अम्मा .उन्हीं पर रख के बेर देती थी और जब तक बेर सजाये जाते , तब तक किलो भर पानी मेरे मुंह में आ जाता. पता नहीं कितनी बार गटकना पड़ता .गटकते हुए दीदियों की तरफ चोरी से देख लेती , कि कहीं वे देख तो नहीं रहीं वरना छोटी दीदी तो डपट ही देंगी - लालची कहीं की ...
तो अम्मा बड़े जतन से ताज़े हरे पत्ते का पानी पोंछती , उस पर अंदाज़ से बेर रखती , क्या मजाल की किसी भी पत्ते में बेर कम ज्यादा हो जाएँ
कला नमक छिड़कती , लाल मिर्च छिड़की जाती , और फिर सजा हुआ पत्ता आगे बढाती .....आह ...क्या स्वाद ....
बेर की टोकरी में ही अम्मा एक तरफ एक अलग थैला बाँध के रखे रहती थी , जिसमें बिरचुन होता था . बिरचुन, यानि सूखे बेरों को महीन पीस के बनाया गया पाउडर . ये भी बड़ा स्वादिष्ट होता है . खट्टा-मीठा . मैं जब भी इसे चम्मच ( जो की पत्ते से ही बनायीं जाती थी ) से मुंह में रखती , बड़ी दीदी मुझसे " फूफा " बोलने को कहतीं मैं बोलती , और पूरा बिरचुन बाहर .
बेर-बिरचुन सब खा के पत्ते समेटे जाते , घर से इतनी दूर उन्हें फेंका जाता कि हवा से भी उड़ के घर की बाउंड्री न लांघ सकें .
और फिर सब बच्चे दबे पाँव अन्दर दाखिल . अपनी- अपनी कहानियों की किताबों पर झुके हुए
मुझे लगता है की हमारे समय के लोगों के पास बचपन की तमाम रोचक यादें हैं, जो आज के बच्चों को कहानियों सी लगती हैं। क्या आज के बच्चे भी हमारे जैसा बचपन जीना चाहते होंगे??
बहुत सुन्दर संस्मरण...।
जवाब देंहटाएंआभार शास्त्री जी.
हटाएंकहाँ कहाँ की यादें बटोर लाईन आप... ऐसा लगा हमारा बचपन भी टोकरी में भर लाई हैं!!
जवाब देंहटाएंसलिल जी, हम सबका बचपन एक जैसा ही तो गुज़रा है :)
हटाएंमर्मस्पर्शी संस्मरण ...ये सब कोई भूल सकता है भला :)
जवाब देंहटाएंन, नहीं भूल सकता कोई भी :) आभार भी. :)
हटाएंबचपन की यादों की बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएंनवरात्रों की बधाई स्वीकार कीजिए।
आभार शास्त्री जी. आपको भी नवरात्रि-पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं.
हटाएंगर्मी में सुबह नदी नहाना, दोपहर में ताश खेलना और सोना और रात में बतियाना बहुत अच्छा लगता था।
जवाब देंहटाएंसही है प्रवीण जी. रात में तो हम सब छत पर सोते थे, जब तक नानी कहानियां सुनाती, हम सब अपने-अपने बिस्तर ठंडे कर लेते :)
हटाएंगाँव पंहुचा दिया आपने ..
जवाब देंहटाएंगांव छूटे इतना लम्बा समय हो गया सतीश जी, कि अब जब भी बचपन या छुट्टियां याद करती हूं, तो सीधे गांव पहुंच जाती हूं.
हटाएंउबले बेरों को हमारे यहाँ "लब्दो" कहा जाता था. और बेर के सूखे पाउडर को बेरकुट या बोरकुट.
जवाब देंहटाएंस्केल जितनी लम्बी नकली सिगरेट में भी शायद वही भरा होता था.
बचपन की यादे ताज़ा हो गयीं.
हां कई जगह इसे लब्दो ही कहा जाता है निशांत जी. हम लोगों ने भी कागज़ की सिगरेट बना के उससे बिरचुन के सुट्टे लगाये हैं :)
हटाएंसच कह रही हो वो यादें , वो बातें और वो दिन. आज के बच्चों के पास भी कुछ तो होगा ही याद करने को. जैसे हमारे माता पिता के पास भी था और जब वे हमें सुनाते थे तो हमें भी कहानी सा ही लगता था:)
जवाब देंहटाएंतुम्हारा लेखन और उसपर ये स्माइलीज का तडका...गज़ब का नोस्टाल्जिया फैला रहा है.
हां कुछ न कुछ तो सुनायेंगे ही :) अगर उनके बच्चों की सुनने की दिलचस्पी रही तो :) बच्चों में किस्सागोई की आदत अब खत्म हो रही है :) स्माइलीज़ मज़ेदार हैं न? ह्म्म्म...:)
हटाएंवाह बचपन से ही अंग्रेजी वाला खेल ,आई स्पाई , अपन तो आइस पाईस खेलते थे. गर्मी में पेड़ों पर चढ़के आम तोडना, जामुन और बेर के पेड़ों के कई बार चक्कर लगाना . सुबह नदी में २ घंटे का स्नान . बहुत कुछ याद आया तो . .
जवाब देंहटाएंअरे कहां आशीष? हमारे ज़माने में तो इंग्लिश मीडियम स्कूल भी नहीं थे :) जब हम छटवीं में पढते थे, तब पहला मिशनरी का कॉन्वेंट स्कूल खुला था :) सो खेलते तो हम भी आइस-पाइस ही थे, पर यहां ज़रा सुधार के लिखे रहे :)
हटाएंwaah kitni yaade taja ho gayi ..isko padh kar ...aaj kal ke bacche aakhir kay sunayenge apne baccho ko ..shoping mall ke kisse :)
जवाब देंहटाएंहां रंजू, बस मॉल, इंटरनेट, कम्प्यूटर या कोई और ऐसी ही नीरस बात :)
हटाएंyaadon ka swaad anokha hota hai
जवाब देंहटाएंहां दीदी :)
हटाएंBehtareen Yaden..........Inhi yadon ke sahare to hum jinda rahte hain!!!!!!!!
जवाब देंहटाएंसही कह रहे हैं बेनामी जी :) आपका कमेंट बेनामी क्यों है? कैसे जानूंगी किसका कमेंट है? :(
हटाएंAap ke lekh ne bachapan ki yade taja kara di.
जवाब देंहटाएंआभार विक्रम जी.
हटाएंvah...bachpan ki smritiyan taza ho aayeen
जवाब देंहटाएंआभार सुभाष जी.
हटाएंवंदनाजी,
जवाब देंहटाएंपूरी सहजता से लिखा हुआ बाल्य-काल का रोचक संस्मरण! आपकी इस लेखनी से मेरे मन का बालक भी जाग गया है; उसे भी बहुत कुछ याद आ रहा है... गर्मी की दोपहरी में हवा की तरंगों पर फालसे की पतली टहनियों पर मेरा झूलना, आम के बगीचे से आम चुराना या किसी दूसरे की छत से आम के अंचार की बरनी से अंचार निकाल लेने की जुगत भिड़ाना...आम के बगीचे से हनीफ का खदेड़ना और रामबहादुर का चिल्लाना...जिसे सुनकर पडोसी मोटे मित्र का पेड़ की डाली से भद्द से गिर पड़ना...
आपने तो बचपन की उन शैतानियों की याद दिला दी...
हां आपकी तो तमाम शैतानियां आपकी ही ज़ुबानी हम लोगों ने बहुत चाव से सुनी हैं :) आभार आपका.
हटाएंबहुत प्रतीक्षा कराती हो तुम लेकिन जब कुछ लिखती हो तो वो कष्ट कहीं ग़ायब हो जाता है
जवाब देंहटाएंसच है हमारे पास जिस तरह कि यादें हैं हमारे बच्चे उन बातों उन यादों को शायद समझ भी न पाएं
बहुप्रतीक्षित बहुत ही मज़ेदार संस्मरण !
बौर था, अमराइयाँ थीं,दोस्ती थी, प्यार था
काश! वैसी ही ठहरती गर्मियों की वो दुपहरी
इसीलिये तो देर लगाते हैं लिखने में, ताकि तुम भाव देती रहो :)
हटाएंहमारे यहाँ तो न आम होते थे न बेर। लेकिन बेर के व्यंजन पढ़कर मज़ा आ गया।
जवाब देंहटाएंअरे!! क्यों? कहां रह रहे थे आप जो आम भी नहीं??
हटाएंउबले बेर और बिरचुन कभी नहीं चखा -मुझे कब चाखायेगीं ?
जवाब देंहटाएंसतना आ जाइये भाईजी, जितना चाहेंगे खिलाउंगी, चखना क्या :)
हटाएंअच्छा है ! और लिखिए !
जवाब देंहटाएंहां, लिखेंगे शिशिर और भी, शुक्रिया :)
हटाएंगर्मी छुट्टी की सबकी अपनी अपनी यादें हैं, मीठे बेर वाले तो नहीं पर आम-लीची, और ढेर सारे भाई-बहन के साथ ननिहाल में की गयी शरारतें याद दिला गयी ये पोस्ट.
जवाब देंहटाएंबचपन की यादें अनमोल होती हैं और हर पीढी के पास अपनी यादें होती हैं. आज के बच्चों के पास भी हैं, अल्ल सुबह साइक्लिंग,क्रिकेट,फुटबौल, स्विमिंग,सबका मिलकर किसी के एक के घर कार्टून (या कोई भी ) फ़िल्में देखना..टेरेस पर पिकनिक-पार्टी...ये लोग भी छुट्टियां आम दिनों के रूटीन से अलग ही बिताते हैं. इनसे आगे वाली पीढ़ी कुछ और अलग तरह से बिताएगी.
अच्छी लगी ये खुशनुमा पोस्ट.
हां सो तो है रश्मि. शुक्रिया भी :)
हटाएंबचपन ओर यादों का संबंध गर्मियों की छुट्टियों के कारण ही है ... ये सत्य है ...
जवाब देंहटाएंबेर की चीजें ... अपने लिए तो नए हैं ये व्यजन ... बहुत मधुर संस्मरण है आपके पास ...
गरमियों में ठंडक देने वाले ये व्यंजन खास तौर से बुंदेलखंड के हैं दिगम्बर जी. आभार.
हटाएंहा ...हा ...हा ....…वन्द्ना जी आपके किस्से ने मुझे भी बचपन में ला खड़ा कर दिया ..ऐसी ही शरारत हम भी किया करते थे ..हमें खेलने जाने की सख्त मनाही होती थी 'लडकियां हो घर के काम काज की ओर ध्यान दो 'ऐसा निर्देश था पर हम बाज नहीं आते .....मौका देखते ही एक अजीब तरह की सीटी से सबको संकेत दे दिया जाता और फिर आस पास के सभी बच्चे अपने अपने घरों से छुपते छुपाते निकल पड़ते ...कभी आम के पेड़ पर कभी पनियल के पेड़ पर तो कभी पोखरी में केले के पेड़ की नाव बनाकर घूमते और जब शाम को घर लौटते तो पापा से खूब शिकायत होती हमारी कभी कभी तो मार भी पड़ती .......
जवाब देंहटाएंआपने तो फिर बचपन याद दिला दिया ....पहले शायद सभी का बचपन ऐसे ही बीता होगा...
जवाब देंहटाएंमम्मी के पास जाने वाली हूँ ,लिस्ट में उबले बेर और बिरचून भी जोड़ लिया है ....
धन्यवाद वन्दना जी...
कितना सजीव चित्रण किया है आपने वन्दना जी, हृदय को छू गया गहरे तक...
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