”उत्सवी रंग में रंगा लंदन, इन दिनों पूरी तरह से एशियाई त्यौहारमयी हो जाता
है. अपनी-अपनी पहचान और संस्कृति को बचाए रखने के पक्षधर लंदनवासी भारतीयों की
श्रद्धा चरम पर नज़र आती है. रस्मो-रिवाज़ को पर्म्परागत तरीक़े से निभाने की इच्छा
सर्वोपरि दिखाई देती है. परन्तु, इस सबके बावजूद कहीं कोई अप्रिय घटना नहीं घटती.
भारी जनसमूह होने के बावजूद, कहीं किसी भी परिसर में कोई आहत नहीं होता. कहीं भी
किसी की वजह से अन्य नागरिकों को कोई परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता. गरबा हो या
दुर्गा पूजा, भजनों या संगीत की आवाज़ भी, मजाल है जो उस कक्ष या परिसर से बाहर तक
आ जाये. कहीं कोई लाउड स्पीकर नहीं लगाये जाते. ईद हो या रोज़े, सुबह चार बजे अजान
के नाम पर पूरे शहर को नहीं जगाया जाता. उत्सव मनाने कोई समय सीमा तय नहीं, पटाखे
खरीदने बेचने, छुड़ाने पर कोई प्रतिबंध नहीं, परन्तु बाकी नागरिकों के सुकून और
व्यवस्था का पूरा खयाल रखा जाता है. इसमें लंदन पुलिस से लेकर आम नागरिक तक सभी
अपनी ज़िम्मेदारी निभाते हैं.’
ये हिस्सा है
हमारी प्यारी दोस्त शिखा वार्ष्णेय की किताब ’ देशी चश्मे से लन्दन डायरी’ का. इस
हिस्से को पढ़ते हुए मै हिन्दुस्तान में भी ऐसी ही व्यवस्था की कल्पना करने लगी....!
शिखा वार्ष्णेय
किसी के लिये भी अन्जाना नाम नहीं है. शिखा से मेरा परिचय ब्लॉग के माध्यम हुआ, इस
आभासी दुनिया में, और उसके बाद तो लगातार, साल दर साल उनसे नेह का नाता जुड़ता गया,
दोस्ती पक्की होती गयी उधर उनका लेखन भी परवान चढ़ता रहा. पहले ’स्मृतियों में रूस’
( यात्रा संस्मरण) फिर ’मन के प्रतिबिम्ब, (कविता संग्रह) का प्रकाशन हुआ. इन प्रकाशनों के साथ ही पुरस्कारों का सिलसिला भी शुरु हुआ
जो कभी उनकी पत्रकारिता पर कभी पुस्तकों पर तो कभी ब्लॉगिंग पर मिलते रहे. ,देशी
चश्मे से लन्दन डायरी’ उनकी हालिया पुस्तक है. पुस्तक में उन आलेखों का संकलन है,
जो उन्होंने लन्दन से भारतीय समाचार पत्रों के लिये लिखे थे. ये आलेख सन २०१२ से
२०१५ के बीच दैनिक जागरण (राष्ट्रीय)और नवभारत के पाक्षिक और साप्ताहिक स्तम्भों में
प्रकाशित होते रहे हैं. इन आलेखों में लन्दन की ऐसी छोटी-छोटी झांकियां देखने को
मिलती हैं, जो आमतौर पर किसी बड़े ग्रंथ में नहीं मिलेंगीं.
लन्दन की जीवन शैली को शिखा ने इतने रोचक तरीके
से लिखा है, कि पढ़ते हुए पाठक खुद भी लन्दन की गलियों में, उत्सवों में, बसों में
हर जगह साथ-साथ चलने लगता है. लन्दन की
चुनाव प्रक्रिया के बारे में शिखा लिखती हैं- ’दीवारें साफ़-सुथरीं, लाउड स्पीकर का
कोई शोर नहीं, कोई सेलेब्रिटी प्रचार में नहीं लगा हुआ, सड़कों पर भीड़ नहीं, कहीं
कोई मुन्नी बदनाम हुई या शीला की जवानी पर
पैरोडी नहीं सुनाई दे रही.’ तब याद आता है हिन्दुस्तानी चुनाव!! उफ़्फ़!! स्कूल बस
के बारे में लिखते हुए शिखा ने कहा- कि स्कूल बस का कोई प्रावधान ही नहीं. हर
इलाके के अपने स्कूल होते हैं, और उस स्थान के बच्चों को वहीं पढ़ाने की अनिवार्यता
भी. ये स्कूल बच्चों के लिये पैदल-पहुंच के होते हैं. हिन्दुस्तान में तो शहर के
एक छोर पर आप रहते हैं और पच्चीस किमी दूर बच्चे का स्कूल होता है. सुबह छह बजे
निकला बच्चा, आठ बजे स्कूल पहुंचता है.
’हॉर्न संस्कृति’ पढ़ते हुए मुझे हिन्दुस्तान का
ट्रैफ़िक याद आता रहा. शुरुआत हुई, तो लगा काश! यहां भी लन्दन जैसी व्यवस्था होती,
हॉर्न बजाने पर ज़ुर्माने की, लेकिन आलेख खत्म होते होते पाया कि लन्दन में भी अब
लोग हॉर्न का पर्याप्त इस्तेमाल कर रहे. तो क्या वहां ज़ुर्माने का प्रावधान समाप्त
हो गया?
’देशी चश्मे से लन्दन डायरी, ऐसी ही छोटी छोटी
रोज़मर्रा से जुड़ी बातों का खूबसूरत दस्तावेज़ है, जो पाठक को सीधे लन्दन से जोड़ता
है. बिना किसी लाग-लपेट के अपनी बेबाक शैली में शिखा ने लन्दन की
अच्छाइयों/बुराइयों सब पर बराबर नज़र डाली है. तो अब यदि आप लन्दन के बारे में
जानना चाहते हैं तो शिखा वार्ष्णेय की ये पुस्तक अवश्य पढ़ें. मेरा दावा है, आप
निराश नहीं होंगे. इन रोचक आलेखों को समेट कर पुस्तक रूप दिया है समय साक्ष्य
प्रकाशन-देहरादून ने. किताब की छपाई अच्छी है. बाइंडिंग से थोड़ी शिक़ायत है,
क्योंकि पढ़ते हुए, आगे के पेज़, पुस्तक का साथ छोड़ने लगे हैं. शीतल माहेश्वरी
द्वारा बनाया गया कवर पृष्ठ आकर्षक है. पुस्तक की कीमत भी बहुत वाज़िब है- मात्र दो
सौ रुपये. प्रिंटिंग बढ़िया है. प्रूफ़ की ग़लतियां भी न के बराबर हैं. तो लेखिका, और
प्रकाशक को इस बेहतरीन पुस्तक के प्रकाशन हेतु खूब बधाई.
पुस्तक: देशी चश्मे से लन्दन डायरी
लेखिका: शिखा वार्ष्णेय
प्रकाशक: समय साक्ष्य प्रकाशन
15 फ़ालतू लाइन, देहरादून-248001
ISBN
:978-93-88165-18-1
मूल्य- 200 रुपये मात्र
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पढना और फिर उसपर लिखना ... बहुत मेहनत का काम है. बहुत शुक्रिया इतनी सुन्दर प्रतिर्किया का.
जवाब देंहटाएंलिखा हुआ जब अपनों का होता है, तो न तो पढ़ना बड़ा काम, न लिखना मेहनत का काम :)
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