पिछले
दिनों श्री गुणसागर सत्यार्थी जी द्वारा रचित ऐतिहासिक उपन्यास “एक थी राय प्रवीण”
पढने का सुयोग जुटा. इस उपन्यास से पहले, राय
प्रवीण पर आधारित एक और उपन्यास- “ओरछा की नर्तकी” मैं पढ चुकी हूं, वो भी अद्भुत लिखा गया है, लेकिन उस उपन्यास में
राय प्रवीण को दरबारी नर्तकी साबित किया गया है, जबकि सच ये है कि राय प्रवीण कभी दरबारी
नर्तकी रही ही नहीं. और इस सत्य को बहुत प्रामाणिक तरीक़े से प्रस्तुत करता है उपन्यास-
“एक थी राय प्रवीण”.
यह
उपन्यास बरधुआं की पुनिया से ओरछा की राय प्रवीण
होने तक का सफ़रनामा बहुत विस्तृत और रोचक तरीके से प्रस्तुत करता है. आमतौर पर ऐतिहासिक
उपन्यास बोझिल होने लगते हैं लेकिन सत्यार्थी जी ने इस उपन्यास की रोचकता को उसकी मौलिकता
के साथ आरम्भ से अन्त तक बरक़रार रखा.
यह एक अफ़सोसनाक सत्य है कि अब तक, राय प्रवीण पर जितना भी लिखा
गया, जितने भी उपन्यास लिखे गये, उन सब में उन्हें राजनर्तकी के रूप में वर्णित किया
गया. अब चूंकि राजनर्तकी, उस पर राजा इंद्रजीत सिंह की प्रेमिका. तो उपन्यासकारों ने
स्वयमेव मान लिया कि यदि कोई नर्तकी प्रेमिका भी है, तो उसकी स्थिति क्या मानी जायेगी?
ज़रा स्तरीय भाषा में हम भले ही उसे राजनर्तकी लिखें, लेकिन अन्तत: राजनर्तकी का क्या
स्थान होता था दरबार?एक नर्तकी जो राजा की प्रेमिका भी हो को क्या उपाधि दी जा सकती
है? रखैल से ज़्यादा कुछ नहीं. चलताऊ भाषा में हम इस रिश्ते को यही नाम देते हैं. लेकिन
सत्यार्थी जी का उपन्यास – “एक थी राय प्रवीण” इस मिथक को पूरी तरह नकारता है, और राय
प्रवीण को उनकी भार्या के रूप में स्थापित करता है. हां ये सच है कि राय प्रवीण घोषित
पत्नी का दर्ज़ा पाने के पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो गयीं. कवि केशव की शिष्या, जिसे
स्वयं केशवदास ने राय प्रवीण नाम दिया, कितनी कुशल कवियित्री, नर्तकी, गायिका और चित्रकार
थी ये आप इस उपन्यास के माध्यम से जान सकेंगे.
उपन्यास
इंद्रजीत की कछौआ यात्रा और पुनिया की सुरीली
आवाज़ के आकर्षण के साथ शुरु होता है. बरधुंआ नाम के एक छोटे से गांव के बहुत गरीब लुहार
की बेटी है पुनिया. बिना मां की इस बेटी को ईश्वर ने बहुत सुरीला गला दिया है. पिता भी संगीत प्रेमी है. किस प्रकार
राजा इंद्रजीत इस गरीब बालिका का गायन सुनने के लिये कछौआ में समारोह के दौरान पुनिया
का भी गायन रखवाते हैं और वहीं प्रसाद देते हुए प्रसन्न हो भगवान को चढाई जाने वाली
माला पुनिया के गले में डाल, उसके आंचल में मिठाई का दोना रख देते हैं. पुनिया ने इस
हार को ही वरमाला मान लिया और खुद को राजा इंद्रजीत की पत्नी. आगे की कथा आप उपन्यास
में ही पढ्ने का आनन्द है. पुनिया की संघर्ष गाथा और कला के उच्च शिखर पर पहुंचने का
सिलसिलेवार वर्णन किया है सत्यार्थी जी ने. सौतिया डाह के चलते रावरानी ने जब अकबर
तक राय प्रवीण की खबर भेजी, और अकबर ने जब उसे दरबार में तलब किया तो इंद्रजीत प्रवीण
को वहां भेजने के सख्त विरोधी थे. ऐसे में चंद पंक्तियों से राय प्रवीण ने उन्हें समझाया-
''आई हों बूझन मंत्र
तुमें, निज सासन सों सिगरी मति गोई,
प्रानतजों कि तजों कुलकानि, हिये न लजो, लजि हैं सब कोई।
स्वारथ और परमारथ कौ पथ, चित्त, विचारि कहौ अब कोई।
जामें रहै प्रभु की प्रभुता अरु- मोर पतिव्रत भंग न होई।“
प्रानतजों कि तजों कुलकानि, हिये न लजो, लजि हैं सब कोई।
स्वारथ और परमारथ कौ पथ, चित्त, विचारि कहौ अब कोई।
जामें रहै प्रभु की प्रभुता अरु- मोर पतिव्रत भंग न होई।“
इस पद को पढ के कौन राय प्रवीण को राजनर्तकी या रखैल
मानेगा? सत्यार्थी जी ने ऐसे तमाम पद/दोहे इस उपन्यास में उल्लिखित किये हैं जो राजा
इंद्रजीत सिंह और राय प्रवीण के रिश्ते को स्पष्ट करते हैं. उपन्यास राय प्रवीण के
संघर्ष को पूरी प्रामाणिकता के साथ सिद्ध करता
चलता है. इसीलिये इस उपन्यास को मात्र एक उपन्यास कहना ग़लत होगा. ये सत्यार्थी जी द्वारा
रचित शोढ ग्रंथ है. एक ऐसा उपन्यास जिसे आने वाले समय में संदर्भ ग्रंथ के रूप में
इस्तेमाल किया जायेगा. ऐतिहासिक उपन्यास तब
प्रामाणिक हो जाते हैं जब उन्हें गहन शोध के बाद लिखा जाता है. इस उपन्यास में भी सत्यार्थी
जी के चालीस वर्षों की मेहनत है. छोटे से छोटा तथ्य भी उन्होंने जुटाया, ऐसा तथ्य जो
राय प्रवीण की राजनर्तकी की छवि को मिटा सके.
और उनकी मेहनत रंग लाई है. इस उपन्यास को पढने के बाद लोग राय प्रवीण की राजनर्तकी
की छवि को तोड़ पायेंगे.
पूर्व
में एक उपन्यास पढा था – “ ओरछा की नर्तकी”
ये उपन्यास इक़बाल बहादुर देवसरे द्वारा रचित है. बहुत बढिया उपन्यास है, लेकिन
राय प्रवीण को पूरी तरह राजनर्तकी के रूप में स्थापित करता हुआ. जैसा कि नाम से ही
ज़ाहिर है. सत्यार्थी जी ने ऐसे तमाम मिथकों को तोड़ने का सार्थक प्रयास किया है. उपन्यास
बहुत रोचक शैली में लिखा गया है. लोक भाषा का समावेश उपन्यास को पात्रों के निकट ले
जाने के साथ-साथ उसमें विश्वसनीयता पैदा करता है. ओरछा बुन्देलखंड की प्रमुख रियासतों
में से एक है. सो बुन्देली भाषा का प्रयोग
उपन्यास को ज़्यादा प्रामाणिक और आत्मीय बनाने में सफल हुआ है.
उपन्यास
की सम्वाद शैली बहुत प्रभावी है, लेकिन कहीं-कहीं बहुत लम्बे सम्वाद हैं, जो पाठक को
बोझिल करने लगते हैं. कई लम्बे सम्वाद उपन्यास की मांग के अनुसार हैं. फिर भी लम्बे
सम्वादों से बचना उचित होता. लम्बे सम्वाद , उपन्यास की कसावट में सेंध लगाने का काम
करते हैं.
“एक
थी राय प्रवीण” के रचयिता श्री गुण सागर सत्यार्थी जी का स्थायी निवास कुण्डेश्वर-
ज़िला टीकमगढ, म.प्र. में है. आपका जन्म सन- १७ अगस्त सन १९३७ को चिरगांव-झांसी में
हुआ. आप मुंशी अजमेरी के पौत्र हैं. सो लिखने का गुण विरासत में मिला, जिसे परम्परा
के रूप में वे आगे बढाते रहे हैं. आपने मेघदूत का बुंदेली में काव्यानुवाद किया, जो
कालिदास अकादमी उज्जैन द्वारा किया गया. चौखूंटी
दुनिया, नाव चली बाल महाभारत सहित लगभग ग्यारह
पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. तमाम क्षेत्रीय पत्रिकाओं का सम्पादन भी आपके खाते
में है. लगभग बीस पांडुलिपियां अभी प्रकाशन के इंतज़ार में हैं. बुन्देलखंड की इस विभूति
को पढना ही अपने आप में बुन्देलखंड को जान लेने जैसा है.
नेशनल
पब्लिशिंग हाउस-दिल्ली से प्रकाशित “एक थी राय प्रवीण” भी आने वाले समय में बहुत महत्वपूर्ण
पुस्तक साबित होगी, ऐसा मेरा विश्वास है. शुभकामनाओं सहित
उपन्यास:
एक थी राय प्रवीण
लेखक:
गुण सागर सत्यार्थी
प्रकाशक
: नेशनल पब्लिशिंग हाउस
4230/1
अंसारी रोड, दरियागंज
नई
दिल्ली- 110002
मूल्य
: ७२५ रुपये मात्र
|
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (30-04-2016) को "मौसम की बात" (चर्चा अंक-2328) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत आभार शास्त्री जी.
हटाएंबहुत वेहतरीन जानकारी उपलब्ध कराई है आपने वन्दना जी।आजकल साहित्य में इतनी अधिक पुस्तकों का प्रकाशन होता है कि पाठकों को सभी अच्छी पुस्तकों का पता चल पाना बहुत मुश्किल होता है। परन्तु आप के ब्लॉग पर समीक्षा पढकर अच्छी पुस्तकों के चयन में आसानी हो जाऐगी। आपकी भाषा भी आकर्षक है मजबूत है। समीक्षा पढकर पुस्तक को पढने का मन बन ही जायेगा।
जवाब देंहटाएंअरे वाह... पहले तो प्रशंसा के लिये आभार. आप यहां तक आये, समीक्षा पढी, उसके लिये तहेदिल से शुक्रिया.
हटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " कर्म और भाग्य - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत आभार आपका.
हटाएंबहुत ही रोचक जानकारी उपलब्ध करवाई.. आभार.
जवाब देंहटाएंबहुत धन्यवाद दीपक जी
हटाएंसंतुलित समीक्षा की है दी ,अब इसको पढ़ना ही पड़ेगा .....
जवाब देंहटाएंजरूर पढना निवेदिता.
हटाएंगुण सागर सत्यार्थी जी की पुस्तक की बहुत ही शानदार समीक्षा प्रस्तुत की है आपने। आपका आभार।
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया आज़मी साब
हटाएंमैं अभी एक सप्ताह पहले ओरछा में राय प्रवीण का महल देख कर आया, फिर पब्लिशर के माध्यम से नंबर लेकर सत्यार्थी जी से फ़ोन पर बात करी, और आज आप का विद्वता पूर्ण, निष्पक्ष आलेख पढ़ा...एक सप्ताह में कितनी लम्बी यात्रा मेरी रही...लगा जैसे चालीस वर्ष पहले के स्कूल/कॉलेज के समय में वापिस पहुँच गया. 'ओरछा की नर्तकी' के आलावा भी अनेक किताबें राय प्रवीण के बारे में छपी हैं, ऐसा सत्यार्थी जी ने बोला था, क्या उनकी कोई जानकारी आपके पास है? यदि हां, तो आप वह भी उपलब्ध करवाएं, पाठकों की जानकारी में वृद्धि होगी...अच्छी-बुरी का चुनाव पाठक के हाथ में रहे तो अच्छा रहता है, ऐसी मेरी मान्यता है...धन्यवाद् के साथ
जवाब देंहटाएंवन्दना जी एक थी राय प्रवीण उपन्यास पढ़ा और पश्चात उसपर आपकी समीक्षा भी मैने ओरछा की नर्तकी भी पढ़ा है | आपकी समीक्षा शोधपरक है | एक थी राय प्रवीण मे अनेक स्थानो पर शाब्दिक अशुद्धियाँ हैं उन्हें नज़रअंदाज कर दिया जाय तो कमोबेस उपन्यास स्वस्फूर्त पठनीय है |
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