पिछले दिनों लगातार ऐसी किताबें हाथ आईं, जिनके शीर्षक
चमत्कृत करते थे. इन किताबों ने खुद को पढने के लिये न केवल आमंत्रित किया, बल्कि पढने पर मजबूर कर
दिया. ऐसा ही शीर्षक है – “अकाल में उत्सव” . कैसा विरोधाभासी शीर्षक है न!! आप पन्ने
पलटे बिना रह ही नहीं सकते, और अगर एक बार पन्ना पलट लिया, तो उपन्यास पढे बिना नहीं
रह सकेंगे, ये मेरा दावा है.
पंकज
सुबीर.. जी हां यही हैं इस उपन्यास के रचयिता. पंकज सुबीर का परिचय देना बेमानी होगा
क्योंकि अब यह नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं. पंकज, एक ऐसे उपन्यास के रचयिता, जिसे केवल उपन्यास कहना
गलती होगी. ये आत्मकथा है सैकड़ों/हज़ारों किसानों की. व्यथा कथा है आत्महत्या को मजबूर
होने वाले किसानों की. और कच्चा चिट्ठा है प्रशासनिक तंत्र का. पोल खोलता है व्यवस्था
की. पंकज सुबीर पहले भी ऐसे विषयों पर उपन्यास/कहानियों
का सृजन कर चुके हैं, जिन पर लिखने से आमतौर
पर लोग हिचक जाते हैं. एक साथ दो ,बिल्कुल
विपरीत माहौल जीने का नाम है अकाल में उत्सव. एक ज़िन्दगी रामप्रसाद की और दूसरी प्रशासन
की. इन दोनों परिवेशों को बखूबी जिया है पंकज ने.
कहानी शुरु होती है “सूखा पानी” नामक गांव के परिचय के साथ. गांव का परिचय यानि गांववासियों
का परिचय. उपन्यास की कथा गांव के एक छोटे
किसान रामप्रसाद, उसकी पत्नी कमला , और ज़िला प्रशासन के साथ-साथ आगे बढती है. रामप्रसाद
छोटा किसान कैसे हो गया, ये विवरण इतने रोचक और सिलसिलेवार तरीक़े से
लिखा गया है, कि पाठक को न केवल रामप्रसाद
की ज़मीन खत्म होते जाने का कारण समझ में आता जाता है, बल्कि ऐसे ही अन्य किसानों
के छोटे किसान होते जाने का कारण भी समझ में आने लगता है. निरक्षरता कितना बड़ा अभिशाप
है, ये भी इस उपन्यास के माध्यम से समझा जा सकता है. गांवों में आज भी नयी पीढी से
ठीक पहले वाली पीढी पूरी तरह अशिक्षित/निरक्षर है. सेठ महाजन पैसा उधार दे के किस तरह
ब्याज वसूल रहे, कितना चुकता हो गया, कितना बाक़ी है, ये वो आज भी महाजन का बताया/समझाया
ही जान पाता है. ब्याज वसूली का जो तरीक़ा महाजन से समझा दिया वही उसके लिये अन्तिम
सत्य बन जाता है.
कई
स्थानों पर पंकज ऐसा लिख गये हैं, कि आंखें बरबस उस पंक्ति पर बार-बार घूमती हैं. एक
जगह वे लिखते हैं-
“पिता कहीं नहीं जाता, वह अपने
सबसे बड़े बेटे में समा जाता है. उसे अपने स्थान पर पिता कर देता है. तो रामप्रसाद भी
जब अपनी बहनों के अरवाज़े पर सुख-दुख में जाकर
खड़ा होता था, तो वह रामप्रसाद नहीं होता था, वह होता था उन बहनों का पिता.”
पिता
की सारी ज़िम्मेदारियां निभाने वाले भाई की स्थिति तो देखिये, सब करने के बाद भी श्रेय
किस तरह छोटे की तरफ़ चला जाता है-
“ रामप्रसाद तो आकर बड़े बुज़ुर्गों में बैठ जाता और
कारज का सामान भागीरथ को सौंप देता कि जा बाई से पूछ कर जहां जो करना है, कर दे. रामप्रसाद
उधर बैठा रहता और इधर बहन भागीरथ के गले लग कर शुकराने के आंसू उसके कंधे पर बहा देती.”
इतना
सच्चा चित्रण!! पढते हुए लगता जैसे ये तो हमारा ही भोगा हुआ सच है…
उपन्यास
में एक तरफ़ रामप्रसाद की व्यथा है, कर्ज़ है, दुनिया भर के ऐसे खर्चे हैं, कि बीवी के
पांव की तोड़ी तक बेच के पूरे न हो पा रहे, तो दूसरी तरफ़ प्रशासन को मिलने वाले ऐसे
फ़ंड हैं, जिन्हें किसी न किसी प्रकार ठिकाने लगाना ही है. लाखों की राशि किस प्रकार
निचले पायदान से लेकर ऊपर तक ठिकाने लगायी जा रही है, ये पढने योग्य है. जो भी प्रशासनिक
कार्यों से जुड़े हैं, या जिनका साबका इन विभागों से पड़ता रहता है वे इस उपन्यास की
सच्चाई को बहुत बेहतर तरीक़े से समझ पायेंगे. और मुझे लगता है कि कभी न कभी आमजन का
पल्ला इन दफ़्तरों/बाबुओं/नेताओं से पड़ता ही है.
व्यवस्था
पर करारा व्यंग्य करते हुए पंकज लिखते हैं-
“ सरकारी व्यवस्था शेर के शिकार
करने समान होती है. जब शेर अपने शिकार से पेट भर खा लेता है, तो बाक़ी का शिकार अपने से छोटे जानवरों , मतलब गीदड़ों
आदि के लिये छोड़ देता है. गीदड़ भी जब पेट भर लेते हैं, तो फिर अपने से छोटे लकड़बग्घों,
गिद्धों आदि के लिये छोड़ देते हैं. कुल मिलाकर यह कि जब ऊपर वालों का पेट भर जायेगा
तब नीचे वालों का रास्ता खुलेगा. सरकारी व्यवस्था मांसाहारी प्राणियों की व्यवस्था
से बहुत मिलती जुलती है.”
व्यवस्था
पर इतनी बड़ी शाब्दिक चोट!!! बहुत हिम्मत चाहिए ऐसा सच लिखने के लिये. पंकज बधाई के
पात्र हैं कि उन्होंने पूरा उपन्यास ही ऐसे कड़वे सच के आधार पर रचा.
उपन्यास
में ज़िन्दगी कभी रामप्रसाद के कच्चे,सुविधाहीन घर से गुज़रती है, तो कभी कलेक्टर के
बंगले से. दोनों जगहों का माहौल उभर के सामने आता है. एक तरफ़ जहां अभाव में भी ज़िन्दगी
की मिठास दिखाई दे जाती है, वहीं दूसरी तरफ़ सुख-सुविधा सम्पन्न बंगले पर रसहीन, बनावटी
जीवन दिखाई देता है. ये फ़र्क़ घर और मकान के फ़र्क़ जैसा ही है. उपन्यास के श्रीराम परिहार,
राकेश पांडे, मोहन राठी, रमेश चौरसिया, दिनेश रघुवंशी जैसे पात्र एकदम अपनी अगल-बगल
के पात्र लगते हैं. यहां सभी नाम काल्पनिक हैं, लेकिन इन पदों पर आसीन हर व्यक्ति का
चरित्र एक खांचे में फिट है, उसी खांचे को पंकज ने बखूबी उभारा है.
उपन्यास
के कई हिस्से बहुत मार्मिक हैं. कई जगह आंसुओं का सैलाब उमड़ता है,. कभी आंसू बह जाते
हैं, और कभी आंख, नाक और गले को नमकीन करते रहते हैं. खास तौर से कमला का तोड़ी उतार
के देना और रामप्रसाद का उसे बेचने ले जाना.
“रामप्रसाद ने गमछे का एक कोना
ढिबरी पर रखा और उस पर ताकत लगायी. पेंच घूम गया. पेंच के घूमते ही मानो समय का एक
पूरा चक्र घूम गया, चक्र जो कमला के ब्याह
के आने से अब तक चला था. पेंच खोल कर कमला ने तोड़ी को उतारा और दोनों तोड़ियां
रामप्रसाद के गमछे में लपेट दीं. गमछे में लिपटी तोड़ियों को उठाकर माथे से लगाया और
कुछ देर लगाए रही, तब तक, जब तक भरभरा के रो नहीं पड़ी वो.”
कमला
के साथ-साथ मैं भी भरभरा के रो पड़ी थी…
“”रामप्रसाद चुपचाप उकड़ूं बैठा, घुटनों पर सिर रख कर तोड़ी को पिघलाये
जाने की प्रक्रिया को देख रहा था. पिघलने की उस प्रक्रिया को बाहर निकलने से रोकते
हुए जो उसके अन्दर घट रही थी. जैसे ही कारीगर ने तोड़ी के किनारे पर लगी चांदी के स्क्रू
या ढिवरी को एक प्लास टाइप के काटने वाले औज़ार से ताकत लगा कर काटा, वैसे ही रामप्रसाद
के मुंह से निकला- “निरात (आहिस्ता) से…..”
उफ़्फ़……
कोमल भावना का कैसा अद्भुत चित्रण!!! पढते हुए मन करने लगता है कारीगर के हाथ से तोड़ी
छुड़ा के रामप्रसाद को दे दूं….
ये
जो मैने यहां कोट किये, ये तो चंद उदाहरण हैं. पूरी किताब ऐसे ही ताने-बाने से बुनी
गयी है. किसान की मनोदशा और उसकी अपनी स्थिति का अन्दाज़ा बहुत छोटे-छोटे से वाक्यों
में ज़ाहिर कर देते हैं पंकज-
“बात की बात में श्रीराम परिहार
उनके ठीक सामने आ के खड़े हो गये. दोनों की घिग्घी बंध गयी. जीवन भर पटवारी को दुनिया का सबसे बड़ा अफ़सर मानने वाले किसान के सामने
अगर एकदम से कलेक्टर आ के खड़ा हो जाये, तो उसकी दशा सोची जा सकती है.”
ऐसी
ही बहुत छोटी छोटी बातें हैं, जो आम जीवन का अभिन्न अंग हैं , जिन्हें इस खूबी से उकेरा
गया है, कि पाठक खुद इस उपन्यास के भीतर प्रविष्ठ हो जाता है, और रामप्रसाद के साथ
चलने लगता है तो कभी कलेक्टर के.
किसी भी तयशुदा
सरकारी कार्यक्रम में किस तरह और कितना बजट सुनिश्चित होता है, और वास्तविकता
में यह बजट कैसे दायें-बायें हो, सारा कार्यक्रम बाहरी खर्चे पर ही संचालित कर लिया
जाता है, पढ के पाठक, जिसे सरकारी महकमे के काम करने का अन्दाज़ा है, होंठों में ही
मुस्कुराता है, क्योंकि उसे तो कलेक्टर के खिलाफ़ अकेले में भी खुल के मुस्कुराने की
आदत नहीं है, जबकि पंकज ने सारी प्रक्रिया का कच्चा चिट्ठा खोल के रख दिया है. तमाम
राज़ फ़ाश किये हैं पंकज ने. मसलन, फ़र्ज़ी किसान क्रेडिट कार्ड का मामला, मुआवज़े की रक़म
का मामला और भी कई मामले जिन्हें आप खुद पढें.
मुझे लगता है, कि यदि मैने इस पुस्तक चर्चा को समापन
की ओर नहीं मोड़ा तो, धीरे-धीरे पुस्तक के सारे अंश यहीं आपको पढवा दूंगी. उपन्यास का अन्त इतना मार्मिक और चौंकाने वाला है,
कि पढ के पाठक अचानक ही यथार्थ की ज़मीन पर गिरता है. उसे समझ में आता है, कि एक किसान
की आत्महत्या का कारण, केवल फ़सल का खराब हो जाना नहीं होता. उसकी मौत का ज़िम्मेदार
मौसम से अधिक प्रशासन होता है.
अन्त
में इतना ही कहूंगी, कि इस उपन्यास को लिखने में जितनी मेहनत पंकज ने की है, वो पूरी
की पूरी हमें दिखाई देती है. एक किसान के जीवन को आत्मसात किया है पंकज ने. जैसे पूरे सरकारी महकमे की नस नस में बहे हैं खून
बन के. हर बात का इतना सजीव चित्रण है कि पढते हुए लगता है जैसे सारा कार्यकलाप पंकज
देखते रहे हों, अदृश्य हो के.
जब भी कोई कथाकार/उपन्यासकार रचना प्रक्रिया से गुज़र
रहा होता है, तब वो खुद अपने पात्रों में शामिल हो जाता है. उपन्यास के सारे पात्र
उसके अगल-बगल घूमते हैं. मैं निश्चित तौर पर कह सकती हूं, कि रामप्रसाद के दुख को जीते
समय पंकज खुद कई बार रोये होंगे. और जब उपन्यास पूरा हुआ होगा, तब पता नहीं कितने दिनों
तक पंकज खुद को अकेला, और रामप्रसाद की मौत पर ठगा हुआ महसूस करते रहे होंगे. बहुत
दिनों बाद उबर पाये होंगे इस उपन्यास से. मैं आज भी “अकाल में उत्सव “ की गिरफ़्त में
हूं. इसे पढने के बाद अब कुछ और पढने का मन ही नहीं हो रहा.
किसानों
के साथ की गयी पंकज की तपस्या सफल हुई है, इस अद्भुत उपन्यास के रूप में.
ये उपन्यास एक नहीं, अनेक विशिष्ट पुरस्कारों से नवाज़ा जायेगा, नवाज़ा जाना चाहिये. एक
बार फिर बधाई और आशीर्वाद. लिखते रहें इसी प्रकार.
उपन्यास
: अकाल में उत्सव
लेखक
: पंकज सुबीर
प्रकाशक
: शिवना प्रकाशन,
पी.सी.
लैब, सम्राट कॉम्प्लैक्स बेसमेंट
बस
स्टैंड, सीहोर- 466001 (म.प्र.)
मूल्य
: 150 रुपये
ISBN
: 978-93-81520-29-1
|
अद्भुत लिखा है आपने दीदी उपन्यास पर । नि:शब्द हूँ । पंकज सुबीर
जवाब देंहटाएंउपन्यास है ही इतना शानदार। बधाई
जवाब देंहटाएंवंदना जी कमल की समीक्षा लिखी है। मेरे ही भावों को आपने अभिव्यक्ति दी है। सही कहा आपने 'ये उपन्यास एक नहीं, अनेक विशिष्ट पुरस्कारों से नवाज़ा जायेगा, नवाज़ा जाना चाहिये। ' सटीक लिखा है। हार्दिक बधाई!!!
जवाब देंहटाएंबहुत आभार सुधा जी।
हटाएंधन्यवाद शास्त्री जी।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन समीक्षा, पढ़ते पढ़ते लगा कि हाँ ऐसी ही भावना तो मेरे मन में भी उपजी थी ,,पाठकों की भावनाओं को शब्दों में ढाल दिया तुम ने
जवाब देंहटाएंइस में कोई शक नहीं कि ऐसे उपन्यास वही लिख सकता है जिस में संवेदनाओं और भावनाओं को समझने, महसूस करने और अभिव्यक्त करने की अभूतपूर्व क्षमता हो
बहुत बहुत बधाई पंकज को और तुम्हें भी दुआ है कि पंकज ऐसे और इस से भी अच्छे उपन्यास, कहानियाँ आदि लिखते रहें और तुम इतनी ही जानदार और शानदार समीक्षा करती रहो
बहुत बहुत धन्यवाद इस्मत
हटाएंबहुत अच्छी समीक्षा .....!
जवाब देंहटाएंआभार
हटाएंबहुत आभार चारु जी.
जवाब देंहटाएंबहुत खूब वन्दना ,शीर्षक काफी प्रभावशाली है
जवाब देंहटाएंशुक्रिया जी...
हटाएंबिलकुल सटीक व् शानदार लिखा आपने वंदना जी
जवाब देंहटाएंआभार व्न्दना जी.
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