कुछ
संयोग यादगार होते हैं. रश्मि की किताब को सबसे पहले बुक करने और फिर उस किताब का सबसे
पहले मुझे ही मिलने का संयोग भी ऐसे यादगार संयोगों में से एक है. “कांच के शामियाने”
मेरे हाथों में सबसे पहले आई, लेकिन पढी सबसे पहले मेरी सास जी ने. उसके बाद कुछ ऐसा सिलसिला चल निकला कि चाहने के बाद भी किताब पर अपनी टिप्पणी लिखने का मौका टलता गया.
इधर निवेदिता (निवेदिता श्रीवास्तव), रंजू (रंजू भाटिया), वंदना जी(वंदना गुप्ता) और साधना जी(साधना वैद) इस पुस्तक
के बारे में लिख चुकी थीं. अब तो गिल्ट के मारे मेरी डूब मरने जैसी स्थिति हो रही थी.
लगा, रश्मि क्या सोचती होगी!! पहले तो बड़ा हल्ला मचाये थी,- कब छपवाओगी? क्यों नहीं
छपवा रहीं? कब तक आयेगी? और जब आ गयी तो चुप्पी साध गयी. खैर… देर आयद दुरुस्त आयद
की तर्ज़ पर मैने अब “कांच के शामियाने” अपने साथ रखनी शुरु की. स्कूल जाती तो किताब
हाथ में होती. नतीजा ये हुआ, कि अगले दो दिनों में ही उपन्यास पढ डाला. दोबारा पढना कहूंगी क्योंकि इस उपन्यास को हम रश्मि
के ब्लॉग पर पहले ही पढ चुके हैं. बल्कि यूं
कहूं, कि इस उपन्यास की रचना प्रक्रिया की
कई बार हिस्सेदार भी बनी. तो “कांच के शामियाने” से अलग सा ज्जुड़ाव होना लाज़िमी
था.
“कांच
के शामियाने” कहानी है एक ऐसी लड़की की, जिसने बेहद लाड़ प्यार के बाद असीमित धिक्कार
पाया. यानि दोनों ही अपरिमित. उपन्यास की केन्द्र जया की व्यथा-कथा है ये. एक ऐसी व्यथा-कथा,
जिसे पढते हुए कई जयाएं अनायास आंखों के सामने घूम जाती हैं. आये दिन खाना बनाते हुए
जल के मरने वाली बहुओं की तस्वीरें सामने नाचने लगती हैं. कुछ ऐसी महिलाएं याद आने
लगती हैं, जिनके बच्चे किशोर हो रहे हैं, तब भी पति महोदय जब तब पिटाई का शौक़ पूरा
करते हैं, उन पर हाथ आजमा के.
पढते-पढते
कई बार जया पर गुस्सा आता है. क्यों की उसने शादी? क्यों नहीं उसके प्रस्ताव को टके
सा फेर दिया? क्यों सही उसकी मार? हाथ पकड़ के दो थप्पड़ क्यों न लगा दिये? जानते हैं,
ऐसे सवाल मन में कब आते हैं? तब, जब आप पात्र के साथ पूरी तरह जुड़ जाते हैं. हाथ में
पकड़े उपन्यास के साथ-साथ चलने लगते हैं और यही किसी भी कहानी या उपन्यास की सबसे बड़ी
सफलता है कि पाठक उस के साथ ऐसा जुड़ाव महसूस करे कि पात्र की कमियों पर उन्हें गुस्सा
आने लगे तो खूबियों पर प्यार. पढते-पढते मन सोचता है कि- “काश! मैं वहां होती तो जया
के साथ कोई दुर्व्यवहार न होने देती” कितना बड़ा जुड़ाव है ये पात्र के साथ!! लेखिका
कमरे में जया को बाद में ले जाती है, पाठक पहले ही दहशत में भर जाता है कि पता नहीं
अब कौन सा गुल खिलायेगा राजीव…
जया
के साथ पाठक का इस क़दर जुड़ाव हो जाता है कि घर में उसकी तरफ़दारी करने वालों के प्रति
भी मन में प्यार उपजने लगता है. मैने तो कई बार काकी और संजीव को धन्यवाद दिया. मैं
निश्चित तौर पर कह सकती हूं, कि यही भाव तमाम अन्य पाठक/पाठिकाओं के मन में भी आया
होगा.
उपन्यास
में जया को जिस क़दर रश्मि ने जिया है, उससे लगता ही नहीं कि ये तक़लीफ़ किसी पात्र की
है.. लिखते हुए जैसे रश्मि , जया में तब्दील हो गयी… पूरी तरह से रश्मि ने जया को जिया
है, ये एक-एक शब्द, हर एक घटना की सजीवता से ज़ाहिर होता है. जया की छोटी-छोटी सी चिंहुक,
उसकी दहशत पाठक के भीतर भी उतारने में सफल हुई है रश्मि.
पढते
हुए शायद ही किसी के मन में आये कि- हुंह, राजीव जैसे पात्र भी होते हैं कहीं! होते
हैं. तमाम राजीव समाज में बिखरे पड़े हैं. ऐसे राजीवों की वजह से ही औरतों की दुर्दशा
है. खासतौर से उन औरतों की , जो जया की तरह आत्मनिर्भर नहीं हैं. जिनमें प्रतिकार का हौसला कम और बर्दाश्त करने की
क्षमता ज़्यादा है.
“रोज़
रात में मां की नसीहतें सुन सुन के उसका दिमाग़ भन्ना जाता. स्त्री जाति में जन्म क्या
ले लिया, अपने जीवन पर अपना ही कोई अधिकार नहीं. हमेशा उसके फ़ैसले दूसरे ही लेंगे और
उसे मन से या बेमन से मानना ही पड़ेगा. अगर मां ही साथ नहीं देगी तो वो क्या करे आखिर?”
इस
स्वगत कथन में औरत का कितना बड़ा दर्द छुपा है. कुछ न कर पाने की बेबसी, अपनी ही मां
के लिये परायेपन का अहसास..
उपन्यास
पढते हुए बार-बार खुद से वादा करती रही- तमाम लड़कियों को नौकरी करने के बाद ही शादी
करने की सलाह दूंगी, ताकि किसी को जया जैसी विवशता से दो-चार न होना पड़े.
“जब
किसी का घर जलता है, तो जलते हुए घर पर प्रतिक्रिया देना सबको सहज लगता है, पर स्त्री
की हिम्मत ग्राह्य नहीं होती. लोग स्त्री को अबला रूप में ही चाहते हैं. रोती-गिड़गिड़ाती
औरत ताकि वे सहानुभूति जता सकें. उस पर बेचारी का लेबल लगा सकें.”
सचमुच.
समाज का बहुत बड़ा हिस्सा आज भी औरत को अबला के रूप में ही देखना चाहता है. तमाम कामकाजी
महिलाओं को भी उनके पति और परिवार पति से कमतर ही मानना चाहते हैं.
“अब
पति की बात तो माननी ही पड़ती है. आखिर उसी का खाते-पहनते हैं. कभी हाथ उठा दिया, घर
से निकलने को कह दिया तो क्या. वे लोग गरम खून वाले होते हैं. पति के सामने हमेशा झुक
के रहने में ही भलाई है.”
आज
भी घर से विदा होती बेटी को मां-बाप, रिश्तेदार, पड़ोसी यही सीख दे के भेजते हैं कि
वो ससुराल में झुक के रहे. यही झुकने का नतीजा भोगा जया ने.
उपन्यास
के अन्त में जया का विद्रोह कलेजे को ठंडक दे गया. और ये सही भी है. औरत के सहते जाने
का मतलब उसका कमज़ोर होना नहीं है. औरत अपने ऊपर जुल्म सह सकती है लेकिन बच्चों पर अत्याचार
उसकी बर्दाश्त से बाहर का काम है और जया का विद्रोह भी बच्चों की खातिर ही सामने आया.
जया की सफलता सम्पूर्ण स्त्री जाति की सफलता की द्योतक है. संदेश है औरतज़ात को, कि
सीमा से ज़्यादा बर्दाश्त मत करो. बल्कि मैं तो कहूंगी कि गलत बातों को, किसी के ग़लत
रवैये को कभी बर्दाश्त ही मत करो. एक शानदार उपन्यास के लिये रश्मि को बधाई. उपन्यास
में कथ्य और शिल्प दोनों ही मजबूत हैं. क्षेत्रीय बोली का पुट उपन्यास को ज़्यादा सजीव
और विश्वसनीय बनाता है. सम्वाद पात्रों के
अनुकूल है. कहीं –कहीं प्रूफ़ की ग़लतियां हैं, जो उपन्यास के प्रवाह के चलते क्षम्य
हैं. उपन्यास पाठक को बांधे रखता है.
हिन्दयुग्म से प्रकाशित इस उपन्यास “कांच के शामियाने”
की कीमत १४० रुपये है. पुस्तक ऑनलाइन बिक्री
के लिये “इन्फ़ीबीम” और “अमेज़न” पर उपलब्ध है.
पुस्तक : कांच के शामियाने
लेखिका: रश्मि रविजा
प्रकाशक: हिन्द-युग्म
1, जिया सराय, हौज खास,
नई दिल्ली-110016
मूल्य: 140/
ISBN:978-93-84419-19-6
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तुम्हें शुक्रिया भी क्या कहूँ , एक तरह से ये तुम्हारी किताब भी है .
जवाब देंहटाएंशुरू से तुम इस उपन्यास से जुडी रही .कई बार कुछ अंश पहले तुम्हे ही पढवाए हैं कि 'ये ठीक है ना' और तुम्हारी 'हाँ' के बाद ही आगे बढ़ी हूँ .
ब्लॉग पर डालने के बाद तीन साल का गैप अच्छा ही रहा .,दुबारा भी एक बार में पढ़ गई (अपने आलसपने को जस्टिफाई करने का बढ़िया तरीका :) )
बहुत अच्छा लिखा है, उपन्यास में इतना कुछ देख लिया, हमेशा शुक्रगुजार रहूंगी ,इसी तरह मुझे पुश करती रहा करो तभी कुछ लिख पाउंगी .
एक थैंक्स तो बनता है :)
ओहो... और हम अपनी ज़िम्मेदारी इतनी देर से निभाने पर सॉरी बोलना चाह रहे थे। लिखती रहो इसी तरह हमेशा
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (06-12-2015) को "रही अधूरी कविता मेरी" (चर्चा अंक-2182) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत आभार शास्त्री जी.
हटाएंरशिम दी पढ़ ली ह बुक इंतज़ार करना मेरे विचारों का
जवाब देंहटाएं........... सार्थक समीक्षाआभार वंदना दीदी
बहुत शुक्रिया संजय
हटाएंमैंने अभी तक इस उपन्यास को नही पढ़ा ..बस , अभी आर्डर करती हूँ ...समीक्षा ' परफेक्ट ' है ..इसे कोई भी पढ़कर तय कर सकता है की उसे यह किताब पढ़नी है या नही ..राजीव ( यह नाम समीक्षा में ही पढ़ा ) जैसे जीते-जागते किरदार भी इसे पढ़ना चाहेंगे ..घरवालों की नज़रों से छुपाकर .
जवाब देंहटाएंउपन्यास के किरदारों से जुड़ाव होना स्वाभाविक है ..क्यूंकि ये हमारे आस-पास के लोग ही तो है ..जाने-अनजाने हम सब इस तरह के लोगों से टकराते रहते है .और फिर जब रश्मि दी ने यह सब लिखा हो तो क्या कहने !
जरूर और जल्दी मंगवा लो बब्बी. यहां आने, पढने और सार्थक टिप्पणी करने के लिये शुक्रिया.
हटाएंbahut shukriya. jaroor pahunchoongi aapake blog par.
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा समीक्षा पढ़ना ... किताब भी जरूर पढ़ लूँगी
जवाब देंहटाएंबहुत आभार अर्चना जी।
हटाएंपढ़ना पडेगा अब तो :)
जवाब देंहटाएंजरूर पढ़ें पाबला जी।
हटाएंBahut hi sundar hai
जवाब देंहटाएंbahut shukriya jyoti
हटाएंBahut hi sundar hai
जवाब देंहटाएंBahut hi sundar
जवाब देंहटाएंBahut hi sundar
जवाब देंहटाएंआपकी समीक्षा उपन्यास के चरित्र का चित्रण कर रही है ...
जवाब देंहटाएंबहुत हो लाजवाब समीक्षा ...