बेदाद-ए-इश्क़/रुदाद-ए-शादी……….. ऐसा शीर्षक है कि किताब खरीदने
का मन केवल शीर्षक पढ के ही हो जाये, उस पर अगर ये पता चले कि किताब आपकी /आपके उस
दोस्त की है, जिसके लिये आपके मन में पता नहीं कितना अजाना स्नेह है तब कहना ही क्या…
ये किताब भी मेरी ऐसी ही स्नेही मित्र की है. नीलिमा चौहान. जी हां. नीलिमा चौहान और
अशोक कुमार पांडे के संयुक्त सम्पादकत्व में इस पुस्तक का प्रकाशन सम्भव हो पाया है.
’सम्भव’ शब्द का इस्तेमाल इसलिये, क्योंकि
पुस्तक का विषय बड़ा क्रांतिकारी है. ’प्रेम’. जी हां. तमाम वर्जनाओं से घिरा विषय.
मज़े की बात, कि ये विषय कवियों और लेखकों का प्रिय विषय रहा है, लेकिन जब भी किसी युगल
ने इसे अपने जीवन में उतारने की कोशिश की है, उसे न केवल अपराधी क़रार दिया गया बल्कि
तमाम प्रताड़नाओं का अधिकारी भी माना गया.
तमाम आध्यात्म गुरु ’प्रेम’ करने की बात करते हैं,
लेकिन जब यही प्रेम सजीव होने लगता है, तो समाज सिखाने की कोशिश करता है कि बेटा ये
सब किताबों में ही रहने दो. इसे कविता और फ़िल्मों का विषय ही मानो. ’प्रेम’ करके दो
परिवारों में नफ़रत न बढाओ. ग़़ज़ब का विलोम है भाई………
अपने पुस्तकीय उदबोधन में नीलिमा चौहान लिखती हैं-
“ व्यक्ति और संस्थाओं की अस्मिताओं के बीच
आमने सामने की जंग ने प्रेम और प्रेम विवाह को एक चुनौती में तब्दील कर दिया
है. ऐसे वक्त में प्रेम और उसकी चुनौतियों
पर बात करना , समाज को उस दलदल से बाहर निकालने की पहल की कोशिश है.”
निश्चित रूप से इस किताब में ईमानदार कोशिश की गयी
है. तमाम ऐसे नाम शामिल किये गये हैं, जिन्होंने प्रेम की इस जंग में आमने सामने की
लड़ाई लड़ी, और अपने प्रेम को विवाह के अंजाम तक पहुंचाया. इन नामों में से तमाम नाम
ऐसे हैं जिन्हें कहीं न कहीं आप सबने पढा होगा. उनके लेखकीय व्यक्तित्व से परिचय हुआ
होगा लेकिन उनके इस ’निज’ के बारे में कल्पना
भी न की होगी. इस लिहाज से नीलिमा जी और अशोक कुमार जी बधाई के पात्र हैं, जिन्होंने
नितान्त वर्जित क्षेत्र में सेंध लगाने की कोशिश की है.
पुस्तक में कुल सोलह प्रेम जेहादियों की आपबीती शामिल
की गयी है. उपसंहार सम्पादकद्वय ने किया है. अनुक्रम के अनुसार शामिल किये गये नामों
में- सुमन केशरी, अमित कुमार श्रीवास्तव, देवयानी भारद्वाज, विभावरी, नवीन रमण, पूनम,
प्रज्ञा, विजेन्द्र चौहान(मसिजीवी), वर्षा सिंह, रूपा सिंह, किशोर दिवसे, मोहित खान,
प्रीति मोंगा, ममता, राजुल तिवारी, शकील अहमद खान, और अन्त में सुजाता तथा अशोक कुमार
पांडे.
सभी लेखकों ने अपनी अपनी आपबीती बहुत प्रभावी तरीके
से लिखी है. कुछ संस्मरण सचमुच झकझोर गये. आज ये क़लमबद्ध हैं, तो हम उनकी दुरूहता का
अन्दाज़ा नहीं लगा पा रहे क्योंकि संघर्ष के कई वर्ष चंद पन्नों में सिमट गये, और हमने
भी कुछ घंटों में ही उनका जीवन संक्षेप पढ लिया. उस संकटकाल को कमतर इसलिये भी आंक
पाये, क्योंकि उनके संघर्ष, सुखद अन्त ( happy ending) के साथ मौजूद थे.
सुमन केशरी लिखती हैं- “ प्रेम विवाह समूह मानसिकता
का नकार है इसीलिये वह अमान्य ही नहीं, अक्षम्य भी है. वह डर को अंगूठा दिखाने का तो
साहस रखता ही है, सामने वाले के मन में बस कर उसे भी समूह से उखाड़ डालने की कोशिश करता
है.”
बहुत सही लिखा है सुमन जी ने. असल में प्रेम का विरोध
भी समूह सामाजिकता का ही नतीजा है. समूचा समाज प्रेम और प्रेमियों का विरोध करने कमर
कस के बैठा है, और मां-बाप इसी समाज के हिस्से हैं. सो उन्हें समाज में मुंह दिखाने
का डर सताता रहता है. कई बार इस डर में बेटे/बेटी को यथास्थितिवादियों द्वारा शारीरिक
खतरे की सम्भावना भी उनके विरोध के स्वर ऊंचे
करती है.
अमित कुमार श्रीवास्तव ने बहुत मज़े ले-ले के लिखा
है अपना वृतान्त. जिस मन:स्थिति में उन्होंने लिखा, वो पाठको तक पहुंच रही है, आनन्दित
कर रही है.
तीसरे क्रम पर देवयानी भारद्वाज का संस्मरण है और
मेरी बदकिस्मती देखिये, कि मेरे हाथ में इस पुस्तक की वो प्रति आई, जिसके तमाम पृष्ठ
( केवल देवयानी जी के आत्मकथ्य वाले) मिस प्रिंट हैं. सबसे लम्बा कथ्य देवयानी जी का
है, और बहुत सधा हुआ भी, लेकिन इसी कथ्य के आठ पृष्ठ, मेरे पठन की तारतम्यता को खत्म
करते रहे. प्रकाशक को ऐसी प्रतियां जो मिस
प्रिंट हैं, देख के अलग निकालनी चाहिये थीं. मिस प्रिंट होना बड़ी बात नहीं है, लेकिन
पाठक के हाथ में ऐसी प्रति पहुंचना अच्छा नहीं है.
देवयानी जी का कथ्य जितना पढ पाई उससे ज़ाहिर हुआ
कि प्रेम जब अपने अंजाम पर पहुंचता है तो बहुत कुछ तयशुदा रिश्तों जैसा व्यवहार करने
लगता है. जिस व्यक्ति को कभी बेहिस प्यार किया हो, उसी के प्रति नफ़रत पैदा होना… ठीक
उन अजनबी रिश्तों की तरह लगा, जो शादी के बंधन में बंधते हैं और कई बार जीवन भर नफ़रत
के साथ ज़िन्दा रहते हैं, या अलग हो जाते हैं.
विभावरी का संस्मरण एक ऐसी कथा है, जिसे पढ के तमाम
प्रेमी युगलों को राहत मिलेगी. प्रेम पर उनकी आस्था और मजबूत होगी. एक जगह विभावरी
लिखती हैं- “ मुझे आश्चर्य होता है यह सोच कर कि जिस जातिवाद का शिकार कभी मेरे घरवाले
रहे होंगे, जिस जातिवाद ने उन्हें हाशिये पर लाकर खड़ा कर दिया था उसी जातिवाद को तोड़ने
का एक मौका जब उन्हें मिल रहा था तो उन्होंने बहुत उत्साह के साथ इसे स्वीकार नहीं
किया.”
यही विडम्बना है हमारे समाज की. जब मौका मिलता है
तो पता नहीं कितनी बाधाएं, कितने संस्कार, कितनी परम्पराएं घरवालों को नया कदम उठाने,
बेडियां तोड़ने से रोक देती हैं.
नवीन रमण और पूनम ने भी अपनी आख्यायिकाएं पूरी ईमानदारी
से लिखी हैं. शुरु में खिलंदड़े स्वभाव के नवीन ने प्रेम में जिस स्थायित्व का परिचय
दिया है, काबिलेतारीफ़ है. पूनम ने भी बेबाक
लिखा है.
प्रज्ञा जी जानी मानी कथाकार हैं. बहुत सधा हुआ आख्यान
है उनका. वे लिखती हैं- “ हमारी शिक्षा और
शिक्षण संस्थाएं भी रूढिवाद, जातिवाद और क्षेत्रवाद का खुल कर विरोध करती नहीं
दिखाई देतीं. जब खाप पंचायतें प्रेम विवाह करने वाले जोड़ों को सरेआम मौत की सज़ा देती
हैं तो हमारे विचार के केन्द्र कहे जाने वाले शिक्षण संस्थान मौन रहते हैं.”
बहुत पते की बात कही है उन्होंने. मज़े की बात, इन्हीं
शिक्षण संस्थानों में सबसे ज़्यादा जातिभेद और लिंग भेद किया जाता है. जातिगत आरक्षण
प्राप्त बच्चों की अलग लिस्ट होती है वहीं सहशिक्षा वाले स्कूल में लडकों और लड़कियों
को अलग-अलग पंक्तियों में बिठाया जाता है.
जिनका आख्यान पढने की जितनी ज़्यादा उत्सुकता थी मुझे,
उन्होंने उतना ही ज़्यादा निराश किया. जी हां. मैं विजेन्द्र चौहान उर्फ़ मसिजीवी की
बात कर रही हूं. आप सब जानते हैं उन्हें. चमत्कारिक भाषा के धनी मसिजीवी जी अपनी भाषा
का चमत्कार यहां भी दिखा गये. बहुत सफ़ाई से अपनी प्रेम कहानी को चंद शब्दों में निपटा
दिया उन्होंने. ठीक उसी तरह जैसे किसी बच्चे को कहानी सुनाने से बचने के लिये- “ एक
था राजा एक थी रानी, दोनों मर गये खतम कहानी.” सुना दी जाये.
मसिजीवी एक जगह लिखते हैं- “ अब सोचने पर लगता है
कि विवाह भले ही प्रेम विवाह हो, है ये बहुत पेचीदी शै . प्रेम बहुत समर्पण मांगता
है. और इस धारा में कूदने वाले यह सब जान समझ कर ही इस धारा में कूदते हैं. किन्तु
इस अगाध समर्पण के बाद, सबकुछ सौंप देने के बाद भी कुछ हमारे पास बचा रह जाता है और
फिर यही जो बचा रह जाता है बार-बार बीच में आता है.”
मसिजीवी जी, आपको बहुत विस्तार से लिखना चाहिये था.
आपके शब्द लुभाते हैं, भाषा पैठ बनाती है लेकिन यहां आप पाठक को उलझा के चले गये. जब
तक पाठक आपका मंतव्य समझे, तब तक आख्यान समाप्त.
वर्षा सिंह और रूपा सिंह के विद्रोह अल्ग ही तरह
के थे. वर्षा जी जहां निपट अकेले अपना ब्याह रचा पाईं, वहीं रूपा सिंह ने न केवल अकेले
ब्याह रचाया वो भी अलग धर्म में प्रवेश किया और पूरी हिम्मत के साथ अपनी जड़ों को जमाया.
आज ये दोनों ही बहुत प्रसन्न हैं अपने अपने घरों में. अपने चुने हुए रिश्ते में. किशोर
दिवसे जी ने उस समय प्रेम विवाह किया जब प्रेम विवाह का न इतना चलन था न ही विरोध करने
की अनुमति. लेकिन उन्होंने ये साहस दिखाया और आज उनके विवाह को तीस बरस गुज़र चुके हैं.
वे लिखते हैं-
“ बेशक जरा आदमी की शान ही नहीं,
जिसको न होवे इश्क़ वो इंसान ही नहीं.”
मोहित खान की कहानी एकदम आज की कहानी है. अन्तर्जालीय
प्रेम, और फिर उसका पराकाष्ठा पर पहुंचना. अपनी चुनौतियों को उन्होंने बहुत रोचक तरीक़े
से लिखा है. ममता जी राजुल तिवारी और शकील
अहमद खान इन दोनों ने बहुत खुले दिल से अपनी आपबीती पाठकों तक पहुंचायी है.
एक आख्यान, जिसे पढ के मेरा रोम-रोम सिहर गया, वो
है- प्रीति मोंगा जी का आख्यान. ये आख्यान शायद अंग्रेज़ी में लिखा गया होगा या पंजाबी
में, जिसका हिन्दी अनुवाद प्रभात रंजन जी ने किया है. मूल आख्यान किस भाषा में था,
इसका ज़िक्र किया जाना चाहिये था. खैर. प्रीति जी की आपबीती पढ कर लगा कि एक नेत्रहीन
महिला को प्यार के नाम पर क्या क्या बर्दाश्त करना पड़ा…. लेकिन सलाम है उनकी जिजीविषा
को, जिसने आज तक न केवल उन्हें ज़िन्दा रखा, बल्कि जीने की ताक़त दी.
सम्पादक द्वय के वक्तव्य अच्छे हैं, सम्पादक के लायक
हैं. बहुत बेबाक शब्दों में सुजाता जी लिखती हैं-
“ एक प्यार के लिये जरूरी है समाज द्वारा दबे-छिपे
तरीक़ों से दी जाने वाली प्रेम की गुप्त और विवाह की स्वीकृत ट्रेनिंग को परत दर परत
उघाड़ते हुए अपने व्यक्तित्व को फिर से गढ सकने की हिम्मत और इच्छा का होना. वरना तो
क्या फ़र्क़ पड़ता है किसने प्रेम किया!”
अपनी बात कहते हुए अशोक कुमार पांडे जी ने अमीर क़ज़लबाश
का शानदार शे’र पेश किया है-
“ मेरे जुनूं का नतीजा जरूर निकलेगा
इसी स्याह समन्दर से नूर निकलेगा.”
निश्चित रूप से कोशिशें अगर ऐसी जुनूनी हों तो, नूर
निकलना ही है.
कुल मिला के पुस्तक न केवल पठनीय है, बल्कि खोज के
पढने लायक है. शायद पहली बार लोगों ने अपने निजी अनुभवों को इस तरह सार्वजनिक किया
होगा, सो ये एक साहसिक पुस्तक तो है ही. कुछ बातें जो मुझे कमियों की तरह नज़र आईं,
उनमें सबसे पहली कमी- लेखकों की तस्वीरों का ना होना है. यहां केवल लेखक की नहीं, बल्कि
उनके सहयात्री की तस्वीर भी जरूरी थी. तस्वीर पाठक और लेखक के बीच अजब कड़ी का काम करती
है, तादात्म्य बिठाने में. दूसरी बात, आख्यान एक ही पक्ष के हैं. कोशिश की जानी चाहिये
थी कि जिस लड़ाई को दोनों ने लड़ा है, तो आपबीती भी दोनों की हो. क्योंकि संघर्ष दोनों
ने अपने-अपने मोर्चे पर अलग अलग तरह के किये होंगे. ये संघर्ष लड़कियों के ज्यादा कठिन
होते हैं. तीसरी बात- लगभग सभी आख्यानों में प्रूफ़ की तमाम गलतियां हैं. ऐसा लगता है
जैसे कम्पोज़ होने के बाद न तो प्रूफ़ रीडर ने इसे देखा और न ही सम्पादक द्वय ने. जबकि
ये बहुत जरूरी काम था. अशुद्धियों के चलते अच्छी भली भाषा भी कमज़ोर पड़ने लगती है. मिस प्रिंट वाला ज़िक्र मैं कर ही चुकी हूं. ऐसी
प्रति जब मेरे पास आई है तो औरों के पास भी पहुंची होगी. इस ओर भी ध्यान दिया जाना
चाहिये था.
किताब का आवरण-पृष्ठ बहुत शानदार है. पुस्तक का मूल्य
भी पाठकों की पहुंच में है. किताब इंटरनेट
पर खरीद हेतु उपलब्ध है ही, प्रकाशक से भी सीधे प्राप्त कर सकते हैं. पता है-
पुस्तक: बेदाद ए इश्क़ / रुदाद ए शादी
( बाग़ी प्रेम विवाहों के आख्यान)
सम्पादक: नीलिमा चौहान/ अशोक कुमार पांडे
प्रकाशक: दखल प्रकाशन
107,कोणार्क सोसायटी,
प्लॉट नम्बर-22, आई.पी. एक्स्टेंशन,
पटपड़्गंज, दिल्ली- 110092
मूल्य:
175/ मात्र
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समीक्षा पढ़कर किताब को पढ़ने की इच्छा हो उठी ,मंगवाती हूँ। . यह कुछ अलग सी लगी। जितना रोचक विषय है ,समीक्षा भी उतनी जानदार प्रभावशाली है।
जवाब देंहटाएंबहुत आभार पढ़ने और टिप्पणी करने का प्रियदर्शिनी 😊😊
हटाएंपढञ ली। मंगवा रखी है, पर आए तो।
जवाब देंहटाएंउम्मीद है जल्दी ही मिल जायेगी अब , ऐसा अशोक जी ने कहा है न दादा?
हटाएंवंदना समीक्षा बहुत अच्छी लगी और किताब को पढने की अदम्य इच्छा जाग्रत हो गयी. ये है प्रेम विवाह की कहानियां। सत्तर के दशक में राजेंद्र राव जी ने साप्ताहिक हिन्दुस्तान में "सूली ऊपर सेज पिया की" और "कोयला भई न राख़ " में असफल प्रेम की सच्ची कहानियों की श्रंखला प्रस्तुत की थी। उसकी याद फिर से उभर आई है।
जवाब देंहटाएंवाह.... उस वक्त के हिन्दुस्तान मिल पाते...
हटाएंरेखा जी आज मुद्दत के बाद इन दोनों नामों को कहीं पढ़ सकी हूँ क्या ..सूली ऊपर..और कोयला भ ई न राख कहीं पढ़ने को मिल सकती हैं ??कुछ बताइयेगा जरूर . नेट पर कहीं ?..
हटाएंBAHUT VISTRIT POST HAI JISME.M KITAB KE BAARE ME.N GAHANTA SE BATAYA GAYA HAI.... LEKHIKA KO BAHAII
जवाब देंहटाएंआभार आपका.
हटाएं,समीक्षा बहुत जानदार प्रभावशाली है।
जवाब देंहटाएंआभार
बहुत आभार माहेश्वरी जी.
हटाएंसुंदर समीक्षा जो कमी मुझे लगी वह भी तुमने लिख दी :)बुक फेयर से ली थी यह बुक नीलमा के हस्ताक्षर के साथ पढ़ भी तभी ली थी अच्छा प्रयास है यह अपनी कहानी अपनी जुबानी कहना तुमने इस पर विस्तार से लिख कर न पढ़ने वालो में पढ़ने की उत्सुकता जगा दी है :)
जवाब देंहटाएंतुम्हारी टिप्पणी का इंतज़ार था मुझे रंजू।
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंशुक्रिया वंदना जी आपकी समीक्षा के माध्यम से किताब ने अपना पाठकीय दायरा विस्तॄत किया है यह तमाम टिप्पणियों से ज़ाहिर हो रहा है . जो खामियां रह गईं हैं उनको अगले संस्करण में सुधार लिया जाएगा . नये प्रयासों को इतना स्वागत पूर्ण माहौल मिला इसके लिए आप सबके आभारी हैं .. :)
जवाब देंहटाएंप्रयास अगर दिल से किया जाए तो उसका स्वागत भी खुले दिल से होता है। आपका ये प्रयास तो वैसे भी तमाम वर्जनाओं को शिथिल करने का प्रयास है इसका तहेदिल से स्वागत होना ही चाहिए।
जवाब देंहटाएंपुस्तक प्रकाशन के लिए बधाई।
जवाब देंहटाएंआभार कहकशां जी..
हटाएंविस्तृत और निष्पक्ष समीक्षा
जवाब देंहटाएंमंगवा रखी है, देखें पढने का मौका कब मिलेगा
बहुत आभार... पढने के लिये मौका क्या निकालना? थोड़ा-थोड़ा समय चुराइये अपनी व्यस्तताओं के बीच और पढ डालिये..
हटाएंबहुत बढ़िया लिखा है वंदना दीदी। समीक्षा तो पढ़ ली। जिज्ञासा भी बढ़ गई किताब पढ़ने की। अब पुस्तक प्राप्त करने की जुगत करते हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत आभार पूजा। यहाँ तक आने और पढने के लिए। किताब नेट पर भी उपलब्ध है। अशोक जी को फोन करके भी प्राप्त की जा सकती है. नम्बर है- 08375072473
हटाएंबहुत सधी हुयी समीक्षा ... रोचकता बरकरार रखते हुए कुछ हिस्सों को उजागर करते हुए अच्छा संवाद ... पुस्तक पढने की इच्छा तीव्र होती जा रही है ...
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभारी हूँ दिगम्बर जी।
हटाएंबहुत ज़बर्दस्त समीक्षा कि जिसे पढ़ने से पुस्तक पढ़ने को मन लालायित हो उठे
जवाब देंहटाएंये सही है कि यह विषय सदा से ही प्रश्नों के घेरे में रहा है लेकिन जब लेखक/ लेखिका स्वयं ही सत्यकथाओं के पात्र हों तो फिर बात ही क्या है ,,,बधाई नीलिमा जी और अशोक जी का अधिकार है
देर लगी आने में तुमको
हटाएंशुकर है फिर भी आये तो
😊😊 बहुत शुक्रिया इस्मत।
बहुत बढ़िया विश्लेषण वंदना....
जवाब देंहटाएंअभी मैंने पूरी किताब नहीं पढ़ी है...छोटी छोटी कहानियाँ पहले पढ़ लीं. ऐसी किताबों के साथ ये अच्छा होता है कि कहीं से भी उठा कर पढ़ा जा सकता है .
luckily...देवयानी भारद्वाज वाली कहानी मेरे पास वाली किताब में मिसप्रिंट नहीं है . लेखकों की तस्वीरों की कमी मुझे भी खली थी.
नीलिमा और अशोक जी का ये प्रयोग बहुत अच्छा लगा ,जहाँ खुद ही कहानी के किरदारों ने अपनी बात कही है ...अपने अनुभव शेयर किये हैं .
हां रश्मि। इन सच्ची कहानियों को पढ़ने का अलग ही मज़ा है।
हटाएंअच्छी विस्तृत समीक्षा लिखी है वंदना उम्मीद है धर्म संकट नहीं आया होगा :). सकारात्मक अंत के साथ प्रेम कहानियाँ... इंटरेस्टिंग...
जवाब देंहटाएंहाँ शिखा। लिखते समय लेखक को भुला दिया, किताब याद रही.
हटाएंइतनी बेहतरीन समीक्षा. एक एक बात सधी हुई.अब पुस्तक पढ़ने की उत्सुकता बढ़ गई है
जवाब देंहटाएंबहुत आभार रचना जी।
हटाएंइतनी बेहतरीन समीक्षा. एक एक बात सधी हुई.अब पुस्तक पढ़ने की उत्सुकता बढ़ गई है
जवाब देंहटाएंसमीक्षा बहुत अच्छी लगी और किताब को पढने की अदम्य इच्छा जाग्रत हो गयी :))
जवाब देंहटाएं