बुधवार, 16 मार्च 2011

"बेवकूफ़ी जो यादगार बन गयी......"

बेवकूफ़ी इंसान का स्थायी भाव होता है, जबकि समझदार उसे, कोशिश करके बनना पड़ता है :( सब अपनी बुद्धिमानी की चर्चा तो खूब करते हैं, लेकिन बेवकूफ़ियां छुपा लेते हैं , ठीक उसी तरह, जैसे सड़क पर गिरने के बाद गिरने वाला चारों ओर देखता है कि उसे किसी ने गिरते हुए देखा तो नहीं? दर्द तो घर जा के ही महसूस होता है, ऐसे ही बेवकूफ़ी करने के बाद पहली कोशिश उसे छुपाने की होती है :) लेकिन होली के बहाने हमने ब्लॉग जगत के धुरंधरों से कुछ छूट लेने की कोशिश की, अब होली है तो बुरा मानने की गुंजाइश भी नहीं है. तो बस " बुरा न मानो होली है" के नारे को बुलन्द करते हुए हमने इन धुरंधरों की उन यादों को साझा कर रहे हैं, जिन्हें ये अभी तक छुपाये बैठे थे. जिस क्रम में हमें अनुभव मिले हैं, हम उन्हें बिना किसी काट-छांट के यहां पेश कर रहे हैं. स्थानाभाव के कारण इस परिचर्चा को दो भागों में पोस्ट करना पड़ेगा, ऐसा करने का मन नहीं था लेकिन क्या करूं?

मैं मूर्ख हूं- अविनाश वाचस्‍पति

वैसे तो सभी कहीं न कहीं जिंदगी में कभी न कभी वेबकूफी कर बैठते हैं। कुछ मान लेते हैं पर अधिकांश इसे स्‍वीकार नहीं करते हैं। पर जब से वेब का वर्चस्‍व बढ़ा है। स्‍वीकार करने के भी अपने लाभ हैं। अप्रैल फूल के दिन अक्‍सर वेबकूफ बनाया जाता है, लोग बनते भी हैं, मानते भी हैं और हिचकिचाते भी हैं। पर अप्रैल की एक तारीख तो छोडि़ए,अप्रैल का महीना भी नहीं रहा है। पिछले बरस दिसम्‍बर 9 को मैं अपने बैंक खाते से एटीएम के जरिए पांच हजार रुपये निकालने गया। आईडीबीआई बैंक का एटीम था, मैंने आईसीआईसीआई बैंक के कार्ड से रुपये निकालने के लिए कार्ड इन्‍सर्ट किया। पिन डाला और 5000 दर्ज करके, कंटीन्‍यू का बटन दबाया और रिसीप्‍ट के लिए भी यस पर क्लिक कर दिया।मैं एकदम चौकस, कि मशीन अपना मुंह खोलकर रुपये दिखलाये और मैं तुरंत लपक लूं। मैंने कोई कोताही नहीं की और रुपये लपक लिए और जब तक रिसीप्‍ट मिलती, तब तक रुपये गिन भी लिए, पूरे थे। जेब के हवाले किए। फिर मैंने स्‍टेटमेंट पाने के लिए बटन दबाया लेकिन मशीन ने चैट करते हुए बतलाया कि आप इसके लिए अधिकृत नहीं हैं। मैं हैरान कि मेरा ही खाता है और मैं ही अधिकृत नहीं हूं। मेरा माथा ठनक गया। न होली का मौसम है, न अप्रैल का महीना आसपास है। फिर एटीएम कार्ड बाहर निकाला तो देखते ही मुझे अहसास हो गया कि मैं वेबकूफ हूं। वेब से जुड़कर मैंने वेबकूफी की है। मैंने अपने आईसीआईसीआई क्रेडिट कार्ड से कैश निकाल लिया था। फिर कस्‍टमर केयर पर संपर्क किया, उन्‍होंने कहा कि कैश निकासी चार्ज, ट्रांजेक्‍शन चार्ज और इंटरेस्‍ट (जब तक आप कैश वापिस जमा नहीं करवायेंगे, लगेगा)। मैंने तुरंत कैश जमा करवाने के लिए कोशिश शुरू कर दीं परंतु मेरा दुर्भाग्‍य जिस शाखा पर रुपये वापिस जमा करवाने गया, वो पांच बजे शाम तक कैश लेती है। खैर ... दस दिसम्‍बर की सुबह वापिस जमा करवा दिए। अब सोच लिया है कि सतर्क रहूंगा। प्रत्‍येक कार्ड का पिन नंबर अलग रखूंगा। चाहे भूल जाऊं और फिर दोबारा से वेबकूफ बन जाऊं। वेब का जमाना है, कूफ नहीं कुल्‍फी माना है। लगभग 500 रुपये का खून हो गया। मैं तो खून ही कहूंगा, मेरी मेहनत की कमाई, मेरे सामने ही लुट गई। पर इस बार उम्‍मीद है कि वंदना जी संभवत: कृपा करके इस वेबकूफी की भरपाई इस तुरंता वेबकूफियाना पोस्‍ट पर 500 रुपये पारिश्रमिक भेज देंगी। नहीं भेजेंगी तो फिर से एक बार वेबकूफ बनने के लिए तैयार हूं जबकि पारिश्रमिक न मिलना तय है और मैं उसमें संभावनाएं तलाश रहा हूं तो यह हुई दूसरी वेबकूफी और अभी तो होली आने में 5 दिन शेष हैं। हो सकता है एक दो बार और यह अवसर मिल जाए। बहरहाल ....जल्‍दियाना पोस्‍ट में इतना ही। बाकी टिप्‍पणी में लिख मारेंगे, रंग भरे गुब्‍बारे की तरह, जब पोस्‍ट प्रकाशित हो जाएगी। होली खैर ....लेकिन यह भी सच है कि जितनी भी सावधानी बरत लूं, जितना भी सतर्क हो लूं, जिस दिन दोबारा वेबकूफ बनना तय होगा, बच नहीं सकूंगा।

"वो गुब्बारे की तकिया.." यशवंत माथुर
बातज्यादा पुरानी नहीं है यही लगभग दो साल पुरानी है जब मैं मेरठ में था.रिटेल सेक्टर की नौकरी ही ऐसी होती है कि त्योहारों पर छुट्टी मिलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन सा होता है आखिर त्योहारों पर कस्टमर्स की जेब काटने के लिए कोई तो कसाई चाहिए ही न .तो भई होली के रंग से पहले वाले दिन रात को १०-११ बजे स्टोर बंद करवाकर जब रूम पर पहुंचे तो बाकी के तीन मित्र पहले ही आ चुके थे और हम यह देख कर आश्चर्यचकित रह गए कि हमारा जान से प्यारा बिस्तरा कमरे सहित साफ़ सुथरा करके हमारे मित्रों ने चमका रखा था और जिस तकिये को लेकर हम चारों आपस में लड़ते थे वो तकिया शान से मेरे सिरहाने चद्दर के नीचे था.मैं मन ही मन खुश भी था और चकित भी ....शायद होली पर दुष्ट मित्रों का ह्रदय परिवर्तन हो गया हो ....तकिये के बगैर मुझे नींद नहीं आती और स्टोर से आने के बाद सीधे लेटने को जी करता था सो दो चार
बातें करके मैं लेट गया और कब नींद लग गयी पता ही नहीं चला ........सोते सोते अचानक मेरा सर तख़्त से टकराया और मुझे लगा मेरा सर फट गया क्योंकि एक तेज धार ने मेरे चेहरे को भिगो दिया था.......घडी में भोर के चार बजे थे ...और मेरे बाकी मित्र जोर जोर से हंस रहे थे.मैं अभी भी कुछ समझ नहीं पा रहा था कि क्या हुआ ......पर तभी यह अहसास हुआ कि जिसे मैं तकिया समझ कर सर से लगा कर सो रहा था वो दरअसल नयी तरह का गुब्बारा था .....जिसने मुझे मेरे बिस्तर सहित भिगो दिया था.....मेरे दुष्ट मित्रों का यह तरीका था होली खेलने का ......उसके बाद तो सुबह उस वक़्त से दोपहर १ बजे तक हम लोग नौन स्टॉप होली खेलते रहे .४ बजे फिर स्टोर में रिपोर्ट भी करना था.
यह मेरी बेवकूफी ही थी कि थके होने के कारण मैं उस असामान्य से तकिये को पहचान न सका.
आप सभी को होली
की शुभ कामनाएं!

"मंहगा पड़ा जासूस बनने का शौक"- देवेन्द्र पांडे

जिंगी की बसे बड़ी बेवकूफी ! कठिन प्रश्न है। एक हो तो बताऊँ ! पूरी जिंदगी बेवकूफियों के अंबार पर ही तो है। आनंद की य़ादें में मैने इसका उल्लेख किया है। वे बचपन के दिन थे जब हमें जासूसी किताबें पढ़कर जासूस बनने का शौक चर्राया था। लिंक दे रहा हूँ खुद ही
पढ़ लीजिए कि कैसे मरते-मरते बचा था ! http://aanand-ki-yadein.blogspot.com/2010/11/23.html अभी इतना ही। कल
और याद आया तो जरूर लिखूंगा। वैसे आपका यह प्रयास काबिले तारीफ है। पढ़ने की उत्सुकुता बनी रहेगी। होली की ढेर सारी शुभकामनाएँ..
"होली का हो हल्ला"....टी. एस. दराल
गुलाब , मोतिया , चन्दन , केसर
रंग टेसू पलाश फूलों से लेकर ,


हम पहुँच गए सपत्नीक मोहल्ले में
फिर रंग जमाया भांग के हो हल्ले में


गुप्ता , शर्मा, वर्मा जी को रंगों में नहलाए
रसगुल्ले , गुलाबजामुन , गुज्जियाँ खूब उडाए

रंग बिरंगी भीड़ में फिर , पत्नी को टटोला
वो पत्नी सी लगी तो , हाथ पकड़कर बोला

अज़ी अब चलिए भी , बहुत हो गई होली
वो भी मारे ख़ुशी ख़ुशी , संग हमारे होली

घर जाकर प्रेमपूर्वक , जब उनका रंग छुड़ाया
बिन भांग चढ़ाये फिर, सर अपना चकराया

हम ये कैसा गड़बड़ घोटाला कर आए थे
पत्नी की बदले पड़ोसन को पकड़ लाए थे

अपनी तो मद-मस्त थी , मर्दों की टोली
पर समझ आया , वो क्यों संग होली

मांफी मांग हमने फिर , भाभी जी की चाय बनाई
तभी द्वार पर धर्मपत्नी की , कड़क आवाज़ दी सुनाई

हमने कहा भाग्यवान , एक अनहोनी हो गई है
वो बोली पता है जी , शर्मा जी की पत्नी खो गई है

पत्नी वियोग में शर्मा जी, बहुत घबराए हैं
१०० नंबर पर रिपोर्ट लिखाने , यहीं आए हैं

यह सुनकर अपने हाथ पैर, पत्थर से जकड़े गए
रंग उतारकर भी हम तो , रंगे हाथ पकडे गए
अब बाहर पडोसी संग खड़ी, पत्नी भड़क रही है
अन्दर पड़ोसन मज़े से बैठी , चाय सुड़क रही है
अब आप ही बतायें, हम क्या करें?
"जब पतिदेव को बन्द कर दिया..... "शमा -
हम उन दिनों मुंबई में थे . मार्च का महीना था. होली अब के शुक्रवार को थी,इस कारण लम्बा वीक एंड मिल गया था. मेरी चार सहेलियाँ नाशिक से बृहस्पतवार की शाम को ही आ पहुँचीं थीं. खूब गपशप का माहौल बना हुआ था. मैंने काफी सारे व्यंजन,होली के मद्देनज़र बना के रखे थे. शुक्रवार की सुबह मालपुए बनाने का इरादा था. सोचा सबको नाश्तेमे यही परोसा जाये. उसी की तैय्यारी में मै रसोई में लगी हुई थी.रसोई को लग के बैठक थी,सो साथ,साथ गप भी जारी थी. होली पे फिल्माए गए गीत सभी चल रहा था.इतने में दरवाज़े पे घंटी बजी. मै पहुँची तब तक अर्दली ने दरवाज़ा खोल दिया था. बता दूँ की मेरे पती तब ऊंचे ओह्देपे (CID )में सरकारी मुलाजिम थे. दरवाज़े पे आयी हुई टोली हमारी सोसायटी के लोगों की ही थी.उस में अधिकतर भारतीय प्रशासनिक सेवामे कार्य रत थे."कहाँ हैं तुम्हारे साहब ?" किसीने अर्दली को सवाल किया. "जी, वो तो बाथरूम में हैं!" अर्दली ने बताया!मै झट इनके छुटकारे के लिए आगे बड़ी और कहा," आप सब को होली मुबारक हो! दरअसल,ये अर्दली अभी,अभी पहुँचा है....इसे नहीं पता की,ये तो सुबह साढ़े छ: बजे ही अपनी गोल्फ किट लिए गोल्फ कोर्स पे गायब हो चुके हैं!" "अरे, ये जनाब कहीं बाथरूम में छुप के तो नहीं बैठे?"किसी ने अपनी शंका व्यक्त की! "नहीं,नहीं...ये तो वाकई सुबह गोल्फ खेलने चले जाते हैं...मै रोज़ ही देखता हूँ....चलो,चलो...इन्हें फिर कभी धर लेंगे...",हमारे एकदम सामने रहनेवाले और बेहद करीबी पड़ोसी,रमेश जी ने कहा. सब ने मान लिया ! "लेकिन,आपके हाथ के व्यंजन खाने तो हम ज़रूर आयेंगे!" उनमे से एक ने कहा! "जी...जी...ज़रूर!!"मैंने कहा...मेरी जान छूटी. पतिदेव को होली खेलना क़तई भाता नहीं! ये तो सचमे बाथरूम में थे! दरवाज़ा बंद होते ही मै बाथरूम के दरवाज़ेपे पहुची,तथा खट खटा के कहा," मै जब तक कहूँ ना,आप बाहर मत आना!" कहके मैंने बाहर से कूंडी लगा दी! अब हम सहेलियों का गपशप का दौर दोबारा जोर पकड़ गया! मै गरमागरम मालपुए बना बना के मेज़ पे भेजती जा रही थी....हंसी मजाक चल रहा था...फ्लैट सड़क के काफी करीब था,सो सड़क परकी सारी पी,पी,पों,पों सुनायी देती जा रही थी! कुछ डेढ़ घंटा या शायद उससे अधिक बीत गया. जमादारनी आयी. सीधे मेरे कमरे में गयी और फिर घबराई-सी बाहर आके मुझ से मुखातिब हुई," बाई साहब...! आपने कहना तो था,की साहब अन्दर हैं...मै तो कूंडी खोल सीधे अन्दर पहुँच गयी!" इतने में पसीने में तरबतर हुए,ये भी सामने आये! मैंने चकराके सवाल किया," अरे! आप गोल्फ खेलने नहीं गए?" "हद करती हो! गोल्फ खेलने नहीं गया! मुझे बाथरूम में बंद कर के तुम निकल आयीं....ये तक नहीं बताया की,किसलिए बाहर आने से रोक रही हो...pot पे बैठे, बैठे दोनों अखबार तीन,तीन बार पढ़ लिए...मुम्बई की गर्मी अलग! बताओ,गोल्फ खेलने कैसे जाता? तुम्हें इतने भी होश नहीं? दरवाज़ा भी खडकाने से डर रहा था,की,पता नहीं तुमने क्यों टोक दिया है!" पतिदेव उबल पड़े! और मेरे कुछ देर के लिए होश उड़ गए! मै अपनी रसोई और अपनी गपशप में इन्हें बंद कर के भूलही गयी थी! मेरी शक्ल पे हवाईयाँ उडती देख,मेरी सहेलियाँ ज़ोर ज़ोरसे हँसने लगीं! एक इनसे मुखातिब होके बोली," चलये ये होली भी खूब याद रहेगी! लोग रंगों से भीगते हैं,आप पसीने से भीग रहे थे!" ना जाने कितने साल बीत गए,पर ये बेवकूफी भुलाये नहीं भूलती! बल्कि हर होली पे याद आही जाती है!

"वो शरमा के भागना मेरा......" रेखा श्रीवास्तव

अरे वंदना ये क्या पूछ डाला ? वैसे होली का मौका भी ऐसा ही है कि कुछ न कुछ घटित
होता ही रहता है. चलो ये बात आज तक किसी से शेयर की ही नहीं है तुम्हें बताते हैं और ये बात उनको पता है जो उस समय वहाँ मौजूद थे. मेरी शादी का मौका था और मेरे भाई साहब के फास्ट फ्रेंड मुंबई में रहते थे और उसी समय उनकी बहन की भी शादी थी. सब लोग इकट्ठे
थे और ढोलक बज रही थी कि मेरी चाची बोली - आज आदित्य का फ़ोन आया था कि वह शादी में नहीं आ पाएंगे.मैंने कहा - हाँ निशि की शादी है न इस लिए कोई बात नहीं. चाची - कोई बात कैसे नहीं ? शादी फिर कैसे होगी? मैंने कहा - अरे उनके न आने से शादी होने के क्या सम्बन्ध है? अब अपनी बहन की शादी छोड़ कर तो आ नहीं सकते .चाची - फिर तुम्हारी शादी कैसे होगी?
मैंने ने बगैर सोचे समझे कह दिया - क्यों मेरी शादी और आदित्य के न आने से क्या मतलब है?
चाची बोली - सोच लो, तुम्हारी शादी भी नहीं हो सकती है आदित्य के बगैर. मैंने कहा - अच्छा देखते हैं कैसे नहीं होगी? ये तो कोई बात नहीं हुई.
सब लोग हँसे जा रहे थे और मैं थी कि अपनी धुन में बहस किये जा रही थी. मेरी सहेली बोली - अरे जरा गौर तो करो चाची कह क्या रही हैं? आदित्य नहीं आयेंगे तो तुम्हारी शादी कैसे होगी?
तब मेरे समझ में आया कि मेरे पतिदेव का नाम भी आदित्य ही है. उसके बाद तो मुझको वहाँ से भागते ही बना.

मेरी यादगार हसीन बेवकूफ़ी .........हा हा हा हा होली है जी होली है- अजय झा

आपने पूछा था कि होली पर की गई कोई ऐसी गलती बताऊं जो फ़ागुन के हसीन गुनाहों में से एक की तरह याद हो मुझे । होली यूं तो शहरों में भी रहते और मनाते हुए ही आए थे और हर जगह की खासियत के साथ एक देसी भदेसपन और अपनी हुडदंगई तो साथ रहता ही था । इस होली के दौर में एक और जबरद्स्त दौर तब आया जब हम अपने लडकपने से युवापन की ओर बढ रहे थे और खुशकिस्मती ये कि कुदरत ने उस वक्त में हमारे लिए ग्राम्य जीवन को मुकर्रर कर दिया था । यकीन जानिए आज भी मुझे लगता है कि गांवों में रहे वो दिन मेरे जिंदगी के सबसे खूबसूरत दिनों में से एक थे जबकि वो दौर कठिनाईयों और चुनौतियों भरा था फ़िर भी । गांव में होली का दिन तो बस कहने भर को ही तय होता था ..वर्ना शुरू तो हम शायद बसंत पंचमी से ही हो जाते थे ।
गांव की होली में जो चीज़ें मुझे अनमोल मिलीं वो थी जोगीरा और मंडली होली ..ओह क्या दिन थे वो भी । गांव में आम की बौरों की खुशबू हवाओं में घुलने लगती थी और हर तरफ़ उत्सव का माहौल होता था । और हां उन दिनों में शादियां खूब हुआ करती थीं मिथिलांचल में सो उस समय जिंदगी के सावन का फ़ागुन से जो मिलन होता था वो तो बस उन दिनों को यादगार बना देता था जैसे हर आंगन में या जीजा नया आया होता था या फ़िर नई नवेली भौजी ही शो स्टॉप्पर होती थीं । हम तो जाने कितने दिनों पहले से ही शुरू हो जाते थे । अरे नही नहीं जी होली खेलने के लिए नहीं बल्कि भौजी को इस बात के लिए कि ..ए भौजी तनिक नुतुनिया को भी बुलाईए न अबके होली में ...तब बताते हैं दुनो कोई को । भाभी भी जैसे चैलेंज स्वीकार करने को ही तैयार बैठी थीं ....हां हां बौआ जी हम सब समझते हैं ....आईए रही है ऊ ..ई गुंडा मंडली बच के रहिएगा होली में धुलिया देगी आप लोग का भडकुस्स उडा देगी ......देखेंगे देखेंगे ...हमने भी टनक के कह दिया था ।

बस पूरी मंडली को तो जैसे होली में एक अतिरिक्त तोहफ़ा मिलने जा रहा था ..आखिर भौजी की बहिनिया आ रही है होली खेलने ई कोई आम बात थोडी था । हमारे सर्किल से अलग लडकों को जब ये पता चला होगा तो वे बेचारे जरूर जले भुने होंगे ..अरे हम भी अईसी खबरों पर खूब भुन जाते थे । होली से एक दिन पहले का दिन था । भौजी से पिछली शाम को ही बता दिया था कि कि पहले भईया नुतुनिया को ले के आएंगे बाईक पे ..फ़िर उसके बाद बुआ जी को लेने जाएंगे उनके ससुराल से । हमने भी बस कर ली तैयारी । दालान से आंगन तक जाने के बीच की जगह को चुना गया ऑपरेशन नुतुनिया रंगाई के लिए । भईया के मोटर सायकिल की आवाज़ सुनते ही सब पोजीसन में बैठ गए । हमें पता था कि भईया नुतुनिया जी को दालान पे उतार के फ़िर वापस निकल लेंगे बुआ जी को लेने के लिए । ..बस जैसे ही खंबे की ओट से एक परछाई आती दिखी ...जय हो ...एक जोर का शोर और कम से कम तीन बाल्टी लोटा पानी ...फ़चाक से ...। जब तक देखें देखें ...ओह ये तो लक्ष्मी बुआ थीं ..." कौन है रे मुंहझौंसा सब ..ई कौन होली से पहले ही बौराया हुआ है कौन घर का है रे ...सब ये जा वो जा ..। सत्यानाश ...भईया नुतुनिया के जगह पर पहले लक्षमी बुआ को ही लाद लाए थे । वो शाम तो बस कैसे कटी पूछिए मत । लेकिन नुतुनिया आज भी हमें खूब चिढाती है ...हाय रे बौराहा मंडली .......अपनी ही बुआ जी को ..हर हर गंगे कर दिया

बहुत बहुत शुक्रिया वंदना बहन आपका और ढेर शुभकामनाएं आपको

(अरेरेरेरेरेरे........ बात यहीं खत्म नहीं हुए भाई. तकनीकी खराबी के कारण बेवकूफ़ी की श्रृंखला का दूसरा भाग
आपके ब्लॉग-रोल पर दिखाई नहीं दे रहा. शाम को रश्मि ने मुझे बताया और फिर रात में ज्योति ने. जब दो लोगों ने एक सी शिकायत की, तो मेरा माथा ठनका. अब दिक्कत नहीं होगी, सीधे इस लिंक पर जाइये न, हां भाई, इसे पढने के बाद ही तो :)



28 टिप्‍पणियां:

  1. होली के इस पावन पर्व पर ऐसी पोस्ट्स पढ़वाने और हंसाने का अच्छा इंतेज़ाम किया है तुम ने
    लेकिन पहले सब पढ़ लेन तब कमेंट करेंगे

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  2. वाह वाह इसे पढ़कर पता चला कि बड़े-बड़े पड़े हैं। हम नाहक डरे हैं।

    अविनाश जी की फोटू भोली-भाली
    बेवकूफी की कीमत लगा डाली...

    डा0 साहब ने क्या खूब कमाल किया
    पड़ोसन को ले आये बनाके घरवाली

    शमा जी से मालूम हुआ कि कैसे खुलता है किस्मत का ताला
    पति को बाथरूम में बंद किया तो लाइफ हो गई जिंगालाला
    ....वंदना जी आपका यह प्रयास अच्छा लगा। अगले साल से कम से कम एक महीना पहले सचेत कर दीजिएगा ताकि लोग खूब आयें। लोगों के पास समय का अभाव है न। और मूड भी एक चीज होती है।

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  3. हमने तो एक ही यादगार बेवकूफी की है और उसे भुगत भी रहे हैं।

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  4. हफ़्तों तक खाते रहो, गुझिया ले ले स्वाद.
    मगर कभी मत भूलना,नाम भक्त प्रहलाद.
    होली की हार्दिक शुभकामनायें.

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  5. बहुत बढिया...मज़ा आ गया .........
    होली की हार्दिक शुभकामनायें....

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  6. वाह वाह बहुत खूब। मजा आ गया।

    होली की हार्दिक शुभकामनाएं।

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  7. waah maza aa gaya is adbhut rang -hang ko dekhkar ,aagaaz ka andaaj nirala hai ,saath hi sabki pyaari pyaari yaade bhi .tumahari holi hi sachchi holi hai kyonki ye ekta ka pratik hai .na rang na gulaal
    phir bhi dhamaal .happy holi .

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  8. सभी बेवकूफियां पढ़ कर मज़ा आ गया.

    आप को सपरिवार होली की हार्दिक शुभ कामनाएं.

    सादर

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  9. वंदना जी , अब इनमे से चुनिए , सबसे खतरनाक वेवकूफी ।
    होली की सबको हार्दिक शुभकामनायें ।

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  10. वाह! वाह बहुत खूब।
    होली पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ|

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  11. बहुत बढ़िया.. खूब हंसी आ रही है औरों की बेवकूफियाँ पढ़कर और अपनी याद करके...

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  12. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  13. यह प्यारा और मनोरंजक विषय चुनने के लिए बधाई वंदना जी !

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  14. वाह …………ये अन्दाज़ तो बहुत पसन्द आया।
    आपको होली की हार्दिक शुभकामनायें।

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  15. जबरदस्त और रोचक प्रस्तुति,
    वंदना जी इस बार आपके निमंत्रण पर मैं चूक गया,माफी.
    अगली बार कोई मौका नहीं दूंगा.
    .होली पर्व पर हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं ...

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  16. बहुत खूब!
    रोचक प्रस्तुति.
    .......
    आप की शुभकामनाएँ मिलीं .रंग पर्व पर मुझे भी याद रखने के लिए के लिए धन्यवाद.पर्व विशेष पर आप को भी शुभकामनाएँ .

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  17. होली का आनन्द दुगुना हो गया सभी के रोचक संस्मरण पढ़कर |

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  18. सभी संस्मरण रोचक है ...
    अच्छी है ये बेवकूफियां और इसे स्वीकार करना भी !

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  19. बहुत खूब! बहुत मनोरंजक संस्मरण पढवाये...

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  20. अगले साल की वेबकूफी का जुगाड़ बना रहा हूं, जिससे पहले नंबर पर ही बना रह सकूं। जय हो बेव कूफ संगठन की।
    सदस्‍य बनिए।
    संग चलिए।

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  21. यह तो रह ही गया था पढ़ने से...बहुत मजेदार रहा...

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