पिछले
दिनों बनारस जाना हुआ. कई दिनों से बनारस के अनुभव लिखना चाह रही थी, लेकिन आज बैठ
पाई लिखने.
अपने
गृह नगर के नाम के अलावा इलाहाबाद और बनारस ये दो ऐसे शहर हैं जो मुझे हमेशा बहुत अपील करते हैं. इन नामों में पता नहीं क्या है जो मुझे हमेशा अपनी ओर खींचता है. इलाहाबाद तो मेरा आना-जाना लगा रहता है, लेकिन बनारस पहले
कभी जाना नहीं हुआ था. सो इस बार पुराने साल को विदा करने हम बनारस पहुंच गये.
कड़ाके
की ठंड में यात्रा का मज़ा कुछ अलग ही होता है. ये अलग बात है कि हमारी यात्रा रात की
ट्रेन से शुरु हो रही थी सो अपनी बर्थ पर पहुंच के हमने चुपचाप बिस्तर बिछाया , और
लेट गये. नींद भले ही न आये पर संभ्रांतों की नींद में खलल डालना अभद्रता है, सो कानों
में इयर प्लग ठूंसे गाने सुनते रहे.
हमारी
ट्रेन एक घंटा चालीस मिनट लेट थी सो सुबह 5:30 की जगह 7:10 पर पहुंचने वाली थी लेकिन आधी रात को ट्रेन
ने जो रफ़्तार पकड़ी कि हमें ठीक छह बजे बनारस
स्टेशन पर ला पटका. जबकि हम मना रहे थे कि ट्रेन दो-तीन घंटा लेट हो के पहुंचे.
खैर. स्टेशन से बाहर निकले तो घने कोहरे की गिरफ़्त में आ गये. एक हाथ आगे का नहीं दिखाई
दे रहा था. और भीड़ इतनी जैसे शाम के छह बजे हों.
हमने
जो होटल बुक किया था उसका चैक इन दिन में दो बजे से था. अतिरिक्त आठ सौ रुपये दे के
हम सुबह सात बजे ही अपने रूम में स्थापित हो गये. चाय पी के थोड़ा आराम करके हम दस बजे
नहा-धो के तैयार हो गये और सारनाथ के लिये रवाना होने नीचे उतरे. टैक्सी आने में टाइम
लग रहा था. तो होटल के ही एक कर्मचारी अजय
ने कहा कि जब तक टैक्सी आ रही है तब तक आप लोग मुगल-टाउन देख आइये. मुझे लगा
कोई मुग़ल गार्डन जैसा स्थान होगा. आगे-आगे अजय, और पीछे-पीछे हम दोनों. संकरी गलियों
की भूल भुलैया से गुज़रते हुए हम बस चले जा रहे थे.
मैने
पूछा-“ अजय मुगल टाउन कब आयेगा?”
“अरे! यही तो है मुग़ल टाउन…” मेरी दुविधा को अजय समझ रहे थे. उन्होंने तत्काल
अपनी गलती मानी और बोले-
“ इस पूरे स्थान पर बनारसी साड़ियों के कारखाने हैं. अधिकतर पावर लूम पर बनायी जाने वाली साड़ियों के कारखाने हैं. कुछ हैंड लूम वाले भी हैं.”
सुबह
का वक्त था, वो भी भीषण सर्द, सो कारीगर पावर लूम पर धागे चढा के चले गये थे. हमने
दरवाज़ों की सुराखों और खिड़कियों के अधखुले पल्लों में से झांक के देखा, कैसे खटाखट
साड़ियां बन रही हैं… एक साथ कई पावर लूम चल रहे हैं. अलग-अलग रंग और डिज़ाइन बन रही
हैं… अद्भुत… अजय ने बताया कि थोड़ी देर में कारखाने खुल जायेंगे तब हम आपको अन्दर कारीगरों
से मिलवा देंगे. हम भी वापस चल दिये, हमारी टैक्सी आ गयी थी. असल में यह एक ऑटो था बनारस में बुक किये गये ऑटो
को टैक्सी कहते हैं
बुद्ध के तमाम स्थान भी मुझे बहुत आकर्षित करते हैं. ये अलग बात है कि यशोधरा और राहुल को छोड़ के जाना मुझे उतना ही नागवार गुज़रता है जितना राम का सीता को वनवास पर भेजना. लेकिन गौतम इस मायने में अच्छे लगते हैं कि उन्होंने यशोधरा को निर्वासित नहीं किया था…लांछित नहीं किया था, सो उनका जीवन अपने बच्चे के साथ राजमहल में ही कट गया. लेकिन सीता?? अरेरेरेरे…… मैं भी कहां-कहां भटकती हूं…
स्टेशन
से होटल बहुत दूर नहीं था, और सुबह कोहरा भी बहुत था, सो ऑटो के अगल-बगल कुछ देख न
पाये थे. लेकिन अब सूरज निकल आया था, और सारे रास्ते, पूरा अगल-बगल साफ़ नज़र आ रहा था.
हमारी ’टैक्सी’ तंग गलियों से होती हुई एक संकरी रोड पर आ गयी थी. पूरे शहर की रोड़ें
इतनी संकरी, कि हर पांच मिनट पर जाम लग जाता है. यानि दस मिनट का रास्ता आप ४० मिनट
में पूरा कर पायेंगे. रोड के दोनों ओर से फुटपाथ
गायब है. वाहनों के कारण पैदल चलने वालों का चलना मुहाल…
तंग गलियों, संकरी सड़कों , निरंतरता बनाये हुए कचरे के ढेर, आवारा जानवरों के जत्थे के जत्थे..इस सब के वाबजूद बनारस की गलियों में कुछ बहुत अपना सा लग रहा था… गलियां इतनी तंग, कि आप अपना दरवाज़ा खोल के सामने की ओर दो कदम बढायें, तो तीसरे कदम में ही सामने वाले के घर में खड़े दिखाई देंगे लेकिन तब भी ये गलियां खीझ पैदा नहीं कर रही थीं.
सारनाथ के बारे में सब जानते हैं सो बहुत विवरण की जरूरत मुझे नहीं लगती. दोपहर तीन बजे हम सारनाथ के मुख्य मन्दिर से बाहर आये. आते ही चाय पीने की इच्छा हुई, उमेश जी की. मुझे भूख लग रही थी. लेकिन दूर-दूर तक खाने-पीने का मामला दिखाई न दे रहा था. बायें हाथ पर चाय के कुछ ढाबे थे, उन्हीं में से एक पर हम भी पहुंचे. स्वादिष्ट गरमागरम चाय, बड़े-बड़े कुल्हड़ों में ली. दो पाव लिये और चाय के साथ खा गये. चाय इतनी अच्छी थी कि मेरे जैसे चाय के प्रति उदासीन भाव रखने वाले व्यक्ति को भी दोबारा चाय पीने की इच्छा हो आई. चाय वाला जैतराम और उसकी पत्नी इतने प्यार से चाय पिला रहे थे कि हम थोड़ी देर उन्हीं से बतियाते बैठे रहे. जैतराम ने ज़िद करके बनारसी पान खिलाया हम पान नहीं खाते, ये कहने पर भी उसने मीठा पान लगा कर दिया, ये कहते हुए कि बनारस आई हैं और पान न खायें, ऐसा कैसे हो सकता है?
चाय-पान
निपटा के हम ऑटो की ओर लपके. ऑटो वाले भैयाजी, जिनका नाम धर्मेन्द्र था, बोले कि आप
लोग थोड़ी देर होटल जा के हाथ-मुंह धो के वापस चले चलें ताकि घाट पर समय से पहुंच सकें.
हमने अच्छे बच्चों की तरह सिर हिलाया और होटल पहुंच के ठीक दस मिनट बाद ही वापस ऑटो
में लद गये. साढे चार बजे हम घाट पर पहुंच गये थे. धर्मेन्द्र भाई हमारे साथ केदार
घाट तक आये और नाव तय करवाई. हमारे नाविक थे, पन्द्रह वर्षीय शशि केवट. इतने से बच्चे
को देख के उमेश बोले- “ये बच्चा ले जायेगा क्या?” नन्हे नाविक को खुद को बच्चा कहा
जाना पसन्द नहीं आया शायद. थोड़ा सा उतरे मुंह से बोला- “ अरे साहब, हम पन्द्रह बरस
के हैं. जब ग्यारह बरस के थे तब से नाव चलाना सीखे हैं. एकदम से नाव न खेने लगे हैं.
पहले तैरना सिखाया गया, फिर नाव को डूबने/पलटने से बचाना सिखाया गया. और अगर नाव पलट
ही जाये, तो सवारियों को बचाना सिखाया गया.” माने हम कच्चे नाविक न हैं मैने तुरन्त उसका पक्ष लिया
और उमेश को समझाइश दी- अरे बहुत होशियार है ये. बड़े अच्छे से घुमायेगा हमें. तुम चिन्ता
न करो. “
बैठ गये हम दोनों नाव में. शुरु हुई हमारी घाट-यात्रा……………तीन सौ चालीस घाट…ढाई घंटा….. इसी नाव से हम काशी विश्वनाथ जी के दर्शन और शाम की गंगा आरती के भी दर्शन करने वाले थे. छह बजे शशि हमें ललिता घाट पर ले आया और बोला- साब, अभी विश्वनाथ जी के दर्शन करना सबसे बढिया है. फिर आरती शुरु हो जायेगी. हम फटाफट नाव से उतरे और शशि के पीछे लग लिये. पता नहीं कितनी सीढियां चढते, उतरते, सुरंगों में घुसते हम एक गली में पहुंचे.
यहां प्रसाद की एक दुकान पर हमारे मोबाइल/कैमरे/ जूते / पर्स सब लॉक करवाया गया और हमें आगे की गली तक यानि विश्वनाथ जी के दर तक शशि छोड़ आया. यहां पहुंचने की गलियां इतनी तंग हैं कि एक बार में दो लोगों का भी एक साथ चलना मुश्किल होता है. पानी और दूध जैसे पदार्थों ने इस गली को ज़बर्दस्त चिकना कर दिया है. कहीं-कहीं मैट बिछा हुआ मिला लेकिन अधिकतर जगह चिकनी ज़मीन या मिट्टी में समाया हुआ मैट ही मिला. मंदिर के मुख्य द्वार से भीड़ का रेला धंसा चला जा रहा था. मैने उमेश को कहा था कि अगर दम घोंटू भीड़ हुई तो मैं अन्दर नहीं जाऊंगी. ऐसी अंध भक्ति मुझे कभी उद्वेलित नहीं कर पाई है कि भीड़ में कुचलते हुये मैं भगवान के दर्शन के लिये पहुंचूं. खैर हम अन्दर पहुंचे. हमारे आगे-आगे जाने वाली भीड़ थोड़ी देर में छंट गयी. हम जब मंदिर के अन्दर पहुंचे तो लगा जैसे शिव जी मुस्कराते हुये हमारे ही इंतजार में बैठे थे.
मन्दिर
से निकल कर जब हम वापस ललिता घाट पहुंचे तो आरती की तैयारियां शुरु हो गयी थीं. ललिता
घाट से सटा हुआ है मणिकर्णिका घाट…बहुत सुना था इस घाट के बारे में. लेकिन सुनने और
देखने में कितना फ़र्क़ होता है ये देख के जाना. जब हम शिव जी के दर्शन कर ललिता घाट
पर लौटे तो वहां सैकड़ों गरीब बैठे खाना खा रहे थे. एक साथ बहुत सारे लोग खिला रहे थे.
लग रहा था जैसे कई परिवार मिल के खिला रहे हो. पूछा तो पता चला ये मृत्यु भोज चल रहा
है. मत्यु भोज!! क्यों? “क्यों क्या? ये बगल का मणिकर्णिका घाट नहीं देखा क्या? यहां
108 लाशें एक साथ जलती हैं.
उन्ही के परिवार वाले दाह कर्म करने के बाद यहीं मृत्यु भोज दे कर फ़ुर्सत हो जाते हैं. घाट की सीढियों पर खड़े हो के बायीं तरफ़ देखा, नीचे से लेकर तिमंजिले तक लाशें जल रहीं थीं... ऊंची-ऊंची लपटें ऊपर तक पहुंचने की कोशिश में हों.. अब दायीं तरफ़ सिर घुमाया तो पानी में बने ऊंचे से मंच पर सात युवा पुजारी पीली धोती पहने, हाथ में शंख लिये जीवन का विजय घोष करने को तैयार थे.. लोबाल का धुंआ चारों तरफ़ अपनी पहुंच बना रहा था. चिताओं की लपटों से उठता धुंआ और लोबान का धुंआ आसमान के जाकर एकाकार हो गया था... लाशों की चिरायंध अब लोबान की गंध में तब्दील हो गयी थी.
हम नाव पर सवार हो गये थे. सामने ललिता घाट पर और उससे जरा आगे दशश्वमेध घाट पर भव्य आरती शुरु हो गयी थी. मंच पर एक साथ दस-दस पुजारी पीतम्बर पहने नंगे बदन ऊंची-ऊंची लौ उठाती आरतियों से गंगा की आरती कर रहे थे. मेरा ध्यान आरती पर कम, चिताओं की लपट पर ज़्यादा था… मन कैसा-कैसा तो हो रहा था. आरतियों की लौ…चिताओं की लपट और दोनों की गंगा में बनती समान आकृतियां… मणिकर्णिका घाट के अगल-बगल, पीछे सब तरफ़ ऊंची अट्टालिकाएं. सबके खिड़की दरवाजे घाट की तरफ़. शशि केवट से पूछा- यहां जो लोग रहते हैं उन्हें तो रोज़ इतने अन्तिम संस्कार देखने पड़ते होंगे…बुरा लगता होगा न…” अरे काहे का बुरा? तर गये ये सब, जो यहां जले. और जो लोग रहते हैं इस घाट पे उन्हें तो आदत हो गयी है. अगर कुछ कम लाशें जलें तो शायद उन्हें अटपटा लगे. और जानती हैं, कभी-कभी तो दिन भर में पांच सौ से लेकर सात सौ तक लाशें भी जली हैं. मान लीजिये कि 108 से कम तो जलाने का नियम ही नई है. "मैंने फ़ोटो खींची तो शशि ने मना किया-’ न मैडम जी, यहां की फोटो नहीं खींची जाती. अब खींच ली तो कोई बात नहीं.
नाव मणिकर्णिका घाट के सामने से जा रही है…. .. लम्बा-चौड़ा घाट..पूरे घाट पर जगह-जगह बनी चिताएं..जलती चिताएं. कुछ चिताएं अकेली ही जल रही हैं… कोई अपना न बचा उनके पास…कुछ अकेली लाशों को घाट के भिखारी ताप रहे हैं. लाशों की आग उनके लिये अलाव का काम करती है. एक चिता से चिटख के जलती हुई लकड़ी थोड़ी दूर जा गिरी, तो भिखारी बच्चों/गरीब बच्चों की टोली ने उससे खेलना शुरु कर दिया है….. घाट पर होती भव्य आरती..आरती के स्वर सब विस्मृत से हो गये हैं मुझे.. कुछ नहीं दिखाई दे रहा..कुछ नहीं सुनाई दे रहा…सिवाय जलती चिताओं के..चिताओं की आग से खेलते बच्चों के … जीवन और मृत्यु के उत्सव का शहर है बनारस… मौत अब यहां किसी को झकझोरती नहीं. गंगा में झिलमिलाती चिताओं की लपटें जैसे बहुत कुछ छीने ले रही थीं… बहुत कुछ छूट रहा था लहरों के साथ-साथ… पानी पर बनती आकृतियां जैसे आमंत्रित सा कर रही थीं खुद में समा जाने को….
अब
और नहीं लिख पाउंगी. अद्भुत है बनारस……. याद रहेगा हमेशा.
सुन्दर यात्रा वृत्तांत !
जवाब देंहटाएंबहुत आभार रचना जी।
जवाब देंहटाएंपढ़ते हुए न जाने क्यों झुरझुरी सी आगयी ,एक तो इत्ती ठंड में जाना दूसरा जो वर्णन लास्ट पंक्तियों में करा उस से ज़िन्दगी और मौत का उत्सव। मौत का भी उत्सव ? वाकिफ है इस सच से परन्तु सही में या कितना भयभीत कर देती है ,और हमारे देश के यह जितने भी स्थान घूमने वाले हैं वह न जाने कब साफ़ होंगे ? आम जनता जो वहां रहती है वह ही इस से उबरना नहीं चाहती ,बहुत सुन्दर शब्द चित्रण लगा ,न जाने क्यों इस तरह के जगह देखने की इच्छा होते हुए भी वहां की गंदगी से लिस्ट में कट कर देती हूँ :)और कोई पहलु बनारस से जुड़े हो तो जरूर लिखना पढ़ने की उत्सुकता रहेगी
जवाब देंहटाएंहां रंजू. ज़िन्दगी और मौत का उत्सव ही देखा मैने यहां...एक ओर आरती की तैयारी तो दूसरी ओर दाह संस्कार.. और इन दोनों बातों को समान भाव से लेते वहां के लोग. शुक्रिया यहां आने के लिये.
हटाएंहमेशा की तरह कलकल करती नदी की धाराओं सा प्रवाह तुम्हारे लेखन को अत्याधिक सुंदर और अविस्मरणीय बना देता है और मैं सोचती ही रह जाती हूँ कि काश मैं तुम से कुछ सीख पाती ,,,, मन को छूता हुआ यात्रा वृतांत बहुत कुछ सोचने पर विवश करता है
जवाब देंहटाएंअरे रे..रे... इत्ती तारीफ़?? चाहो तो थोड़ा कम कर लो इसे :)
हटाएंआपका लेखन बहुत अच्छा है वंदना जी, बनारस को लेकर लिखा गया संस्मरण दिल को छूने वाला है। बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत आभार शाहिद जी.
हटाएंvandan ji...
जवाब देंहटाएंaapka yatra vartant padha.. bahut hi sunder laga.. esa lag raha tha ki me khud banaras me ghum rahu... ekdum jivant...
abhinandan.....
बहुत आभार
हटाएंबनारस इतनी बार गयी हूँ...कॉलेज की छुट्टियों में काफी रही भी हूँ (मौसी के यहाँ ) पर इस तरह कभी नहीं देखा, बनारस को . एक नयी दृष्टि से देखने को विवश कर गया, ये यात्रा वृत्तांत . बहुत अच्छा लिखा है..अंतिम पैराग्राफ तो बहुत कुछ उपट पुलट कर गया अन्दर .
जवाब देंहटाएंवैसे यात्रा वृत्तांत part -.2 भी आना चाहिए . अभी और भी बहुत कुछ रह गया होगा,
वैसे यात्रा वृत्तांत part -.2 भी आना चाहिए . अभी और भी बहुत कुछ रह गया होगा, इंतज़ार रहेगा :)
हटाएंहाँ रश्मि लिखेंगे पार्ट 2 भी 😊
हटाएंAdbhut hai aapka lekhan or yatra vratant ....
जवाब देंहटाएंबहुत आभार सदा जी।
हटाएंAdbhut hai aapka lekhan or yatra vratant ....
जवाब देंहटाएंAdbhut hai aapka lekhan or yatra vratant ....
जवाब देंहटाएंAdbhut hai aapka lekhan or yatra vratant ....
जवाब देंहटाएंरोचक यात्रावृत्तांत पढ़कर मन प्रफुल्लित हुआ।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया मनोज जी
हटाएंमनमोहक चित्रों के साथ आपकी नज़रों से बनारस देखने का अलग ही अनद आया ... बहुत ही रोचक और साहित्यिक वार्तालाप के साथ अनेक स्थलों की अच्छी जानकारी दी है आपने ... अच्छा लगा आपका संस्मरण ...
जवाब देंहटाएंआभार दिगंबर जी।
हटाएंसम्भवत: आपके ब्लॉग पर पहली बार आया हूँ, आपका लेखन पढ़कर मुझे वाकई सुखद अनुभव हो रहा है। सादर ...अभिनन्दन।।
जवाब देंहटाएंनई कड़ियाँ :- नेत्रहीनों की भाषा (ब्रेल लिपि) का जनक - लुईस ब्रेल
समर्पित योद्धा कवि का अवसान - डॉ. रवींद्र चतुर्वेदी (पंडित माखनलाल चतुर्वेदी जी की पुण्यतिथि पर विशेष)
खुशी, गम, हंसी , व्यंग को समेटे यह वृतांत अद्भुत है वंदना. जहाँ शिव जी से शिकायत होंटों पर मुस्कान ले आई वहीं अंत की कुछ पंक्तियों ने निशब्द कर दिया है.
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत शुक्रिया शिखा....
जवाब देंहटाएंवाकई
जवाब देंहटाएंसुन्दर चित्रों के साथ आपके और आपके कैमरे की नज़रों से बनारस देखने का आनद आ गया
बहुत आभार संजय
हटाएंबहुत सार्थक आलेख ,सुन्दर व सार्थक रचना , मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार....
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर वर्णन।मन को सुखद अनुभूति और वनारस को करीब से देखने जैसा आभास आपकी ।धन्यवाद
जवाब देंहटाएं