क्या आप नन्हे बच्चे को अपने हाथ से खाना खिलाते हैं?
क्या आप अपने पांच महीने के बच्चे को अपने साथ सुलाते हैं?
क्या आप अपने बच्चों को मनुहार करके ज्यादा खिला देते हैं?
आपके पास बच्चे का डायपरबदलने की टेबल नहीं है?
बच्चे के पास सुविधाजनक खिलौने हैं या नहीं?
क्या आप अपने बच्चे को रबर के बाथ-टब में नहीं नहलाते?
क्या आप गुस्सा होने पर बच्चे को थप्पड़ मार देते हैं?
आपने बच्चे को बाहर कैसा व्यवहार करना है, नहीं सिखाया? क्या आपका बच्चे के साथ भावनात्मक जुड़ाव है?
अगर आपका जवाब हाँ में है, और अगर आप नॉर्वे में रहते हैं, भले ही NRI की हैसियत से ही सही, तो जान लीजिये कि वो दिन दूर नहीं है, जब आपके बच्चों या बच्चे को नॉर्वे सरकार का चाइल्ड वेलफेयर महकमा आपसे छुड़ा कर ले जाएगा और फॉस्टर पैरेंट्स के हवाले कर देगा.
ऊपर जितने भी सवाल हैं, ये किसी भी भारतीय माता-पिता को हैरान-परेशान कर देने के लिए काफी हैं. हम उस देश के निवासी हैं, जहाँ पारिवारिक ,सांस्कृतिक और संस्कारों की जड़ें बहुत गहरी हैं. मेरी बिटिया को मैं , जब वह छ
टवीं कक्षा में पढ़ती थी या शायद उसके बाद भी रात का खाना अपने हाथ से खिलाती थी, क्योंकि वो सब्जियां खाने में बदमाशी कर जाती है. अभी दो साल पहले तक उसे मेरे बिना नींद नहीं आती थी. मनुहार कर कर के खिलाना तो हमारी
संस्कृति में है. बच्चे का डायपर जो भी बदलेगा, निश्चित रूप से वो बच्चे की सुविधा का सबसे पहले ख़याल करेगा. भारतीय तहजीब के मुताबिक़ सारे अच्छे संस्कार माँ-बाप बच्चों में विकसित करते हैं. भावनात्मक जुड़ाव तो हमें पालतू जानवरों से हो जाता है, तब बच्चों से क्यों नहीं होगा?
वैसे तो इस मुद्दे को आप सब जानते हैं फिर भी थोडा बता ही दें-
भारतीय मूल के अनुरूप भट्टाचार्य अपनी पत्नी सागरिका और बच्चों अभिज्ञान और एश्वर्य केसाथ नॉर्वे के स्तावेंगर शहर में एक अमरीकी कंपनी में काम करते हैं. वे वहां NRI की हैसियत से रहते हैं. कुछ समय पहले स्थानीय चाइल्ड केयर सेंटर ने अभिज्ञान के व्यवहार के बारे में शिकायत की. उसके बाद लम्बा पूछताछ का दौर शुरू हुआ. पूरे परिवार की निगरानी की जाने लगी. और १२ मई २०११ को जब अभिज्ञान दो साल का था और एश्वर्य मात्र पांच माह की थी, यह महकमा बच्चों को उनकी उचित परवरिश न होने के नाम पर अपने साथ ले गया और दोनों बच्चों को दो अलग-अलग फॉस्टर होम्स में डाल दिया. कोर्ट ने कहा है कि बच्चों के माता-पिता २०२६ और २०२८ में अपने बच्चों के १८ वर्ष का हो जाने के बाद ही मिल सकेंगे. तब से अनुरूप-सागरिका लड़ रहे हैं, लेकिन कामयाबी अभी तक नहीं मिल सकी. भारत के राष्ट्रपति की अनुशंसा के बाद नॉर्वे सरकार इन बच्चों को अनुरूप के भाई को सौंपने के लिए तैयार हुई है, देखिये बच्चे कब मिलते हैं.
इस पूरे मसले में मेरी समझ में कुछ बातें एकदम नहीं आई, मसलन-
१- नॉर्वे में प्रवेश करने वाले प्रत्येक भारतीय या किसी अन्य देश से आने वाले NRI को नॉर्वे सरकार पूरी नियमावली क्यों नहीं पकडाती, जिसमें क़ानून और उन्हें पालन न करने की सजा का भी स्पष्ट उल्लेख हो?
२- यह साफ़ तौर पर बताया जाए कि बच्चों के साथ कैसा व्यवहार करना है.
३- कोई नागरिक शहर या देश को नुक्सान पहुंचाने वाले क़ानून का उल्लंघन करे तो उसे सजा मिले, प्रवासियों के पारिवारिक मामलों में सरकार का दखल क्यों? फिर परिवार में भी यदि कुछ गलत हो रहा हो, तो उस पर कार्रवाई जायज़ है, लेकिन बच्चों का अपने तरीके से ख़याल रखना ही यदि अपराध बन जाए तब?
४- कोई भी देश किसी दूसरे देश के नागरिक को पारिवारिक मसलों में अपने देश के क़ानून मानने के लिए बाध्य क्यों करे? यदि मामला आपराधिक न हो तो.
हम जिसे लाड़-दुलार-प्यार की संज्ञा देते हैं, नॉर्वे में वही कानूनन अपराध है. अब भारतीय क्या करें?
ये बात मेरी समझ से परे है कि किसी भी बच्चे का पालन-पोषण उसके माता-पिता से बेहतर कोई कर सकता है. बच्चे माँ-बाप से पिटते हैं, और फिर उन्ही की गोद में जा के बैठते हैं. माता-पिता भी बच्चे को चोट पहुंचाने की हद तक नहीं पीट सकते. माँ-बाप बच्चे के साथ बुरा कर रहे होंगे, ऐसा न तो परिवार सोच सकता है, न समाज और न सरकार. जिस देश में सरकार यह देखने लगे, कि बच्चे के साथ माता -पिता का भावनात्मक जुड़ाव तो नहीं है, उस देश की जनता अपने देश के साथ क्या जुड़ाव महसूस कर सकती है?
( कल रश्मि की पोस्ट पढने के बाद, नॉर्वे मामला फिर ज़ेहन में ताज़ा हो गया, लिहाजा आज लिख भी गया. )
सभी चित्र: गूगल से साभार
नार्वे सरकार मानवीय भावनाओं के ऊपर स्वयं को थोप नहीं सकती है, यह गलत है..
जवाब देंहटाएंhttp://indianwomanhasarrived.blogspot.in/2012/01/blog-post_24.html
जवाब देंहटाएंmaeane is vishya par kuchh din pehlae hi likhaa thaa
मैने इस विषय पर पहले लिखा भी हैं , इस घटना के पीछे बहुत से अन्य कारण हैं जो सामने नहीं हैं
जैसे क्या कारण हैं की कस्टडी के माँ पिता की जगह माँ के घर वाले लड़ाई लड़ रहे हैं ???
हम कितना भी भावना मे बह कर बच्चो के प्रति अपनी संरक्षण की बात को जस्टिफाई कर ले लेकिन आज भी एक २ साल की बच्ची फलक को १४ साल की बच्ची अस्पताल लाती हैं , फलक का शरीर लहू लुहान हैं और १४ साल की बच्ची का शोषण होता रहा हैं
भारत में प्रवति हैं की हम बातो को छुपाने में माहिर हैं , हमारे यहाँ बच्चो की सुरक्षा के लिये कोई कानून नहीं हैं . बच्चो को मरना पीटना और उनसे काम करवाना आम बात हैं
कानून जन साधरण के हित में होता हैं और बात सब को ध्यान में रख कर होनी चाहिये
कुछ प्रश्न मेरी पोस्ट में हैं अगर उन पर भी मंथन हो सके तो कटु सत्य से रूबरू होगे हम सब
आपका कहना सही है रचना जी, लेकिन यहां एक ऐसे दम्पत्ति की बात की जा रही है, जिसे बच्चों को प्यार करने की सज़ा दी गयी. असल में हमारे यहां के कानून और दूसरे देश के कानून में बहुत फ़र्क है. अपने ही बच्चों से भावनात्मक जुड़ाव न हो, ऐसी पैरवी हमारा देश नहीं करता.
हटाएंpahle to badhai ki tumhara blog blogroll men dikh raha hai :)
जवाब देंहटाएंab bat post ki ..."tum se sahmat hoon" itna kah dena kafee nahin hai is post ne kai prashn khade kar diye hain jo charcha maang rahe hain
rachna ji ki bat ko bhi ignore nahin kiya ja sakta.
हां इस्मत, इस घटना ने बहुत कुछ सोचने पर मजबूर किया है.
हटाएंइस सम्पूर्ण प्रकरण की विवेचना करते समय हम सेंटीमेंटल ज्यादा हो जाते हैं और हम अपने देश की कानून प्रक्रिया से तुलना करते हैं. जबकि किसी भी देश में कानून उनकी जरूरतों के हिसाब से बनते हैं. यह भी जरूरी है कि किसी भी दुसरे देश में जाते समय कि उस देश के नियम कानून और रहन सहन की हलकी फुलकी जानकारी ले ली जाय. बाहरी लोगों के लिये अलग कानून व्यावहारिक नहीं होंगे पता नहीं किसी देश में अलग देश के नागरिकों के लिये अलग तरह के कानून की व्यवस्था है या नहीं. हाँ हम सब की संवेदनाएं जरूर उस दम्पति के साथ हैं.
जवाब देंहटाएंरचना जी, मेरा कहना भी यही है, कि बाहरी लोगों को अपने देश के उन सख्त नियमों की जानकारी ज़रूर देनी चाहिये, जिनका पालन नहीं होने पर ऐसी स्थितियां बन सकती हों.
हटाएंअच्छा किया..तुमने इतने विस्तार से लिखा ..(मैने तो जिक्र भर किया था )..यही सवाल सबके मन में उठ रहे हैं...फोस्टर पेरेंट्स को बच्चे सौंपे जाने की बात अनजानी नहीं..पर तब.. जब माता-पिता बेहद गरीब हों..या उनका मानसिक संतुलन ठीक ना हो....या नशे के आदी हों...वे अपने बच्चों का पालन-पोषण करने में समर्थ ना हों ..पर यहाँ तो हालात बिलकुल अलग हैं...
जवाब देंहटाएंबेहद अफसोसजनक है यह सब...
जितनी जल्दी यह सारा मामला सुलझ जाए उतना बेहतर..
हां रश्मि, उम्मीद है कि भारत-सरकार के दखल के बाद मामला शायद सुलझ जाये.
हटाएंधन्यवाद यशवंत.
जवाब देंहटाएंसोचने की बात तो है ...रश्मि रविजा जी की बात से भी सहमत हूँ
जवाब देंहटाएंपाश्चात्य जगत में spirituality की इतनी कमी है, सबकुछ physical level पर ही समझते हैं....शायद ऐसा ही कुछ प्रभाव अब भारत में भी दिखने लगा है. रश्मि जी की बात भी सही ही है.बहुत खेदपूर्ण परिस्थिति!
जवाब देंहटाएंबहरहाल, अच्छा आलेख.
धन्यवाद मधुरेश जी.
हटाएंइस गलत नियम को किसी भी दृष्टि से ठीक नहीं माना जा सकता ... नौर्वे सरकार जितनी भी दलीलें दे ... किसी काम की नहीं .... और वैसे भी ये सच नहीं है की वहाँ की सरकार सभी पे ये नियम लागू करती होगी ... क्या नौर्वे में लोग संवेदनशील नहीं होते बचों के प्रति ...
जवाब देंहटाएंयही तो. हम घर में जानवर पालते हैं, और उनसे प्यार हो जाता है तब अपने बच्चों से प्यार कैसे नहीं होगा?
हटाएंकानून को जन भावनाओ से परिपूर्ण करना एक चुनौती है . विवेचना के पक्ष को मानवीय दृष्टि से देखना समाज के लिए अत्यंत आवश्यक है . सुँदर आलेख .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आशीष जी.
हटाएंप्रस्तुति अच्छी लगी । इस लिए अनुरोध है कि एक बार समय निकाल कर मेरे पोस्ट पर आने का कष्ट करें । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंकुछ भी हो वंदना जी ....जिस माँ ने बच्चे को नौ महीने कोख में रख कर ज़न्म दिया है
जवाब देंहटाएंमेरे हिसाब से किसी का हक़ नहीं बनता उससे उसकी औलाद छीनने का ....
अगर कोई ऐसा कानून है तो यकीनन गलत है ....
बच्चों के साथ जितना भावनात्मक जुड़ाव भारत में होता है उतना पश्चिमी देशों में कहीं नहीं पाया जा सकता...बहुत ही सार्थक आलेख..
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