23 दिसम्बर 2011-
हम तीनों, मैं उमेश जी और विधु इन्दौर जाने के लिये तैयार....
लेकिन ट्रेन होते-होते छह घंटे लेट हो गयी
नेट पर रेलवे का रनिंग इन्फ़ॉर्मेशन चार्ट खुला था, लगातार. सोचा चलो मेल ही चैक की जाए. संयोग से रश्मि ( रविजा) ऑन लाइन मिल गयी. बातचीत हो गयी. थोड़ी देर में ही रश्मि का फोन आया, फोन पर उसने सूरजप्रकाश जी द्वारा पुस्तकें गिफ्ट किये जाने कि बात बतायी. पुस्तकें लेने जाने पर कुछ संकोच भी जताया. मैंने कहा-" दौड़ पड़ो. ऐसा मौका बार-बार नहीं आता. तुरंत लपक लो किताबें. उलाहना भी दे दिया, कि तुम्हारी जगह मैं होती तो कब की पहुँच गयी होती वहां... "
खैर , रश्मि जाना तो चाहती ही थी
रश्मि ने सूरजप्रकाश जी के ब्लॉग का लिंक भी दिया. मैंने ब्लॉग पर जा के कमेन्ट किया-
मैं क्या करूं? क्या इतना लाचार तो मैने खुद को कभी नहीं पाया :( किताबें समेटने का इतना अच्छा मौका और मैं इस मौके से हज़ार किलोमीटर दूर :( :( बेचैनी सी होने लगी है पढ के. काश मुझे कुछ किताबें मिल सकतीं!!
साढे पांच बजे ट्रेन आने वाली थी, सो मैं ये कमेन्ट करने के बाद ही साइन आउट करके उठ गई. ट्रेन शाम साढे छह बजे आई. रात नौ बजे खाना-वना खाने के बाद मैंने उमेश जी से लैपटॉप माँगा मेल अकाउंट खोलते ही उछाल पडी.....
सूरज जी का मेल था. लिखा था-
वंदना (छोटी हैं मुझसे इसलिए जी नहीं)
पंक्ति है नर हो न निराश करो मन को ,इसमें नारी शामिल है। अपनी पसंद की
कुछ किताबों के नाम और पता भेज दो किताबें पहुंच जायेंगी। डाक खर्च देना
होगा। कूरियर वाले मोबाइल या लैंडलाइन नम्बर मांगते हैं।
आपके ब्लाग में झांक कर देखा। बाद में आराम से देखूंगा1
मेरी दुनिया www.surajprakash.com है
सूरज"
मुझे कितनी ख़ुशी हुई होगी, आप अंदाजा लगा सकते हैं. खैर, बाद में तीन-चार मेल और आये-गए. फोन पर मैंने बात भी की. इंदौर से लौटने के बाद २- या ३ तारीख को फेसबुक पर सूरज जी ने लिखा कि उन्होंने किताबें भेज दीं हैं, मुझे ४-५ जनवरी तक मिल जानी चाहिए. और ६ जनवरी को मुझे किताबें मिल गईं.
सूरज जी द्वारा किताबें वितरित किये जाने से पहले मैंने किसी को इस प्रकार खुद के द्वारा संकलित की गयी किताबें बाँटते- सस्नेह देते नहीं देखा
सूरज जी का कितना शुक्रियादा करुँ? पता नहीं. धन्यवाद जैसी छोटी चीज़ इतने बड़े काम के लिए दी ही नहीं जानी चाहिए. असली धन्यवाद तो होगा उनकी इस परम्परा को आगे बढ़ाना और उसका मान रखना. पूरी कोशिश करूंगी, ऐसा ही कुछ करने की. अनुगृहीत हूँ सूरज जी. कितनी तकलीफ हुई होगी उन्हें अपनी किताबों को विदा करते हुए??? लेकिन इतना दरियादिल होना ही अपने आप में उदाहरण है. अनुकरणीय कार्य तो है ही. फिलहाल किताबों को पढने की शुरुआत कर दी है. सूरज जी के आदेशानुसार पढने के बाद दूसरों को भी पढने के लिए दूँगी ही
और हज़ारों-हज़ार धन्यवाद तुम्हें रश्मि. न तुम बतातीं, न मुझे पता चलता.
पढ़ने के बाद दूसरों को देने वाली श्रेणी में मेरा नाम सबसे उपर लिख लेना- डाक खर्च की शर्त हू ब हू वही- मुझे ही देना होगा.
जवाब देंहटाएंअब जल्दी पढ़ो- यहाँ सब्र की नदिया भरने को है. कब न बाँध टूट जाये.....
एक और नायाब बात पता लगी, धन्य हैं सूरजप्रकाश जी.
जवाब देंहटाएंबहुत बेहतरीन और प्रशंसनीय.......
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।संक्रान्ति की हार्दिक शुभकामनाएं...
Hame to khushee huee,ki,aapne blog pe itne dinon baad likha! Itne sahaj tareeqese likhtee ho,ki,padhte rahneka man hota hai!
जवाब देंहटाएंMai mil chukee hun Sooraj Prakashji se.....bahut badhiya insaan hain!
और वंदना तुम्हारा लाख-लाख शुक्रिया....इत्ती अच्छी सलाह देने के लिए.....वरना शायद मैं सोचती ही रह जाती...
जवाब देंहटाएंअब हम इस mutual admiration society से बाहर निकलें...:) और सूरज जी के दिखाए राह पर चलें
जल्दी-जल्दी पढ़ लो..सारी पुस्तकें...मुझे भी पढनी हैं :)
यह साहित्य का स्नेह प्रकरण है, जितनी बार पढ़ता हूँ, अच्छा लगता है।
जवाब देंहटाएंइसीलिए तो कहते हैं ब्लागों की नब्ज़ पर हाथ रखिए। क्या जाने ब्लाग के भेस में कोई दानी मिल जाए:)
जवाब देंहटाएंइसीलिए तो कहते हैं ब्लागों की नब्ज़ पर हाथ रखिए। क्या जाने ब्लाग के भेस में कोई दानी मिल जाए:)
जवाब देंहटाएंकिताबें मुबारक हों। मुबारक किताबें हैं। सूरजप्रकाश जी जैसे मुबारक व्यक्ति के घर रहकर आई हैं।
जवाब देंहटाएंज़रूर समीर जी. आपका नाम सबसे ऊपर लिख लिया, अपना पता मेल कर दें, किताबें बस आपके पास ही जायेंगीं.
जवाब देंहटाएंएक अद्भुत व्यक्तित्व..एक ऐतिहासिक घटना!! जितना सुना उसने श्रद्धावनत कर दिया उनके सामने!!
जवाब देंहटाएंबेशक ऐसा बड़प्पन अनुकरणीय है. सूरज प्रकाश जी को शत शत नमन. इस प्रकरण को हम सब से साझा करने के लिये आपका बहुत धन्यबाद.
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंआपके इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल दिनांक 16-01-2012 को सोमवारीय चर्चामंच पर भी होगी। सूचनार्थ
सूरज जी के इस कार्य की जितनी प्रशंसा की जाए वो कम होगी।
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छा लगा पढ़ के ... एक अच्छी कार्य को आगे बढ़ाना अच्छा लगता है ...
जवाब देंहटाएंसूरज जी का अनुकरणीय कदम . पढ़कर हर पुस्तक पर एक एक पोस्ट तो बनती है .
जवाब देंहटाएंमुझे तो ये तसल्ली है कि किताबें अगर तुम्हारे पास हैं तो मैं अवश्य पढ़ लूंगी :)है न ?
जवाब देंहटाएंवाक़ई सूरज जी का ये त्याग अनुकरणीय है,पुस्तकों से तो मनुष्य को अपनी औलाद जैसा प्रेम होता है उसे यूँ दूसरों को देना साहित्य की भी बहुत बड़ी सेवा है
सूरज जी को सादर नमस्कार
हाय रे खुशनसीब ..अब हमें जलन हो रही है :) समीर जी के बाद मेरा भी नंबर लगा लेना.
जवाब देंहटाएंजल्दी से अपना "पता" भेजो शिखा, समीर जी ने भेज दिया है और अगले महीने कुछ किताबें मैं उनके पास भेज दूंगी. दूसरा नम्बर तुम्हारा लग गया. इस्मत, तुमने अभी तक नम्बर नहीं लगाया, याद रखना :)
जवाब देंहटाएंमेरा नं. तो लगा हुआ होगा न ,,,चलो हम भी खड़े हैं लाइन में
हटाएंवंदना
जवाब देंहटाएंक्या कहूं। लोग अब मुझसे पूछ रहे हैं कि आखिर मैं अपनी किताबों का खजाना लुटा कैसे पाया। शायद पूरी बात कुछ शब्दों में कही भी न जा सके।बेशक चालीस बरस से किताबें जुटा रहा था। लाखों रूपये की तो रही ही होंगी। कोई यूं ही अपनी प्रिय किताबें अनजान लोगों को दे दिया करता। बस यूं मान लें कि मन हुआ कि काम की चीजों को,किताबों सहित रीसाइकिल किया जाना चाहिये। यानी काम लायक हर उस चीज को,जो आपके पास अपनी उम्र पूरी कर चुकी है,एक और यूजर मिलनाही चाहिये और हर किताब को एक और पाठक। जब तय कर लिया तो मुश्किल नहीं रहा।
अब मैं रिटायरमेंट के बाद आसपास की हर इस्तेमालयोग्य चीज का एक और यूजर तलाश करूंगा और ऐसी सारी चीजें जुटा कर जरूरतमंद लोगों तक पहुंचाऊंगा।
आप खुशनसीब है जो आपको ये मौक़ा मिला,....
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति....
new post--काव्यान्जलि --हमदर्द-
वन्दना जी सूरजप्रकाश जी के इस कार्य की जितनी तारीफ़ की जाये कम है………कुछ किताबें हमे भी भिजवाइयेगा ।
जवाब देंहटाएंbahut hee badhiyaa post ...आपको भी यदि समय मिले तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
जवाब देंहटाएंhttp://mhare-anubhav.blogspot.com/
ज़रूर वन्दना जी. किताबें भेजने के लिये सबके पोस्टल एड्रेस ज़रूरी हैं बस उसे भेज दीजिये, किताबें ज़रूर भेज दूंगी.
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया । मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है ।
जवाब देंहटाएंअनुकरणीय एंव सराहनीय कार्य
जवाब देंहटाएंvikram7: महाशून्य से व्याह रचायें......
kash hame bhi mil gayi hoti kuchh pustake suraj ji se ,paas me nahi sahi bagal me hi sahi labh to utha hi sakti hoon .
जवाब देंहटाएंअब तो लगता है लाईन में लग भी गए तो खाली हाथ वापस जाना होगा :-)
जवाब देंहटाएंबधाई आपको खजाने का एक अंश पाने की
मेरे पास पन्द्रह किताबें आई हैं पाबला जी, मैं सबके पास बराबर संख्या में भेज दूंगी. आप अपना पता भेज दीजिये बस.
जवाब देंहटाएंVah.... suryaprakash ji ka vyktitv prernadayee laga....abhar Vandana ji.
जवाब देंहटाएंVandana ji...
जवाब देंहटाएंSuraj ji ne vastutah apne naam ko charitarth kiya hai...yah vastutah ek anukarneeya udaharan hai... Moh ka tyaag hi mukti ka marg hai... Suraj ji ne jaisa ki likha hi hai apni tippani main ki dheere dheere apni anya vastuon ko bhi jarooratmandon main baant denge... Kash yah bhav har vyakti main jag jaata to yah dhara swarg ho jati... Shri Suraj Prakash ji ko mera hardik naman....!!
Aur ye sare pratishtith bloger aapki pustakon par bhi nazar gadaye hain... Humare agraj shrdhey..Shri Samir Lal ji avam Pabla ji ko to blogon se fursat hi kahan hogi....:):)....en kitabon par to hum se nithalon ka pahla haq banta hai na....matr dak kharch main 15 kitaben padhne ka suavsar kabhi kabhi hi milta hai....so Vandana ji se anurodh hai ki apni dak soochi main humara naam bhi jod len....:)
saadar...
Deepak Shukla..
जोड़ लिया दीपक जी, आपका नाम भी जोड़ लिया :)
जवाब देंहटाएंलेकिन मज़े की बात ये है कि अभी तक पता केवल समीर जी ने भेजा है, सो अब तक तो पहला और आखिरी हक़ उन्हीं का बनता है :) :)
Vandana ji...
जवाब देंहटाएंSuprabhat!!
Raat pustakon ke liye prarthna patr diya tha...subah hi aa gaya sweekruti dekhne...aur aapki twarit pratikriya padh musura utha....(jaise sarkari tantr main RTI Act..ke prarthna patr ka jawab milta hai...:))....
Chaliye...chunki Samir bhai ka pata pahle aaya hai to unko hi bhejiye pahle....abhi sath hi sath...mail main aapko apna pata bhi bhej dete hain...baad main hi sahi...:):)
Shubh divas...
Saadar...
Deepak Shukla...
अब निश्चिन्त रहिये दीपक जी, किताबें ज़रूर पहुंचेंगीं.
जवाब देंहटाएंबसंत पंचमी की शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लगा! शानदार प्रस्तुती!
जवाब देंहटाएंवंदना आज यूं ही टहलते हुए यहां आ निकला। आपने बहुत से मित्रों और पुस्तक प्रेमियों को कतार में खड़ा कर दिया है। लेकिन उन 15 पुस्तकों के लिए। बहुत अच्छा लगता अगर आपने खुद के खजाने की पढ़ी जा चुकी किताबें भी मित्रों को देने की बात कही होती। वे तो तुरंत दी जा सकती थीं क्योंकि आप उन्हें पझ़ चुकी हैं। अन्यथा न लेना।
जवाब देंहटाएंसस्नेह सूरज
सूरज जी, आपके जैसा बड़ा और कड़ा दिल तो मेरे पास है ही नहीं, कि मैं अपनी किताबें हमेशा के लिये किसी को दे दूं :( लेकिन हां, मैं अपने ख़ज़ाने की किताबें छुपा के नहीं रखे हूं, मुझसे जुड़े तमाम लोग उन्हें नियमित रूप से पढने के लिये ले जाते हैं. बल्कि मै खुद सबको पढने के लिये उकसाती रहती हूं. हालत आज ये है कि हमेशा केवल महिलाओं से जुड़ी पत्रिकाएं पढने वाली मेरे स्टाफ़ की सोलह शिक्षिकाएं साहित्यिक पुस्तकें पढने की आदी हो चुकी हैं :) सबको पढवाने का पुण्य कार्य मैं कर रही हूं. हां आपकी तरह अपनी किताबें सौंप देने की हिम्मत नहीं है मुझमें :( शायद इसीलिये आप आप हैं, और मैं आपकी शतांश भी नहीं :( कोशिश करूंगी कि आपके जैसी बन सकूं.
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