आप भी सोचते होंगे कि मैं भी न......बस्स्स....अब क्या कहें. अब होली के दूसरे दिन परिचर्चा ले के हाज़िर हो रही हूँ? लेकिन इसमें मेरी गलती एकदम नही है . असल में होली के दो दिन पहले से मेरा नेट होली की छुट्टी पर चला गया हम कुछ न कर सके आज मौका मिला, तो हाज़िर हूँ परिचर्चा ले के. स्कूल में परीक्षाओं के चलते मैं एक तो पहले ही सबको सूचित करने में लेट हो गयी थी, उस पर कोई मजेदार सा विषय भी नहीं सूझ रहा था. मुसीबत में दोस्त ही काम आते हैं . आप सब तो जानते हैं कि मेरी मित्रमंडली में कितने ज्ञानी मित्र हैं . उन्होंने विषय सुझाया, बल्कि विषय सुझाते हुए धिक्कारा भी, कि क्या हर समय मज़ाक सूझता है तुम्हें? पूरा देश गरीबी की चपेट में है, और तुम्हें ठिठोली सूझ रही? इस बार कोई गंभीर विषय चुनो. बल्कि महंगाई की मार पर ही विचार आमंत्रित करो. ऐसी गंभीर फटकार सुन के इधर हमारी हंसी गायब हुई,उधर नेट चलता बना. खैर अपनी ब्लॉगर साथियों के पास मेल किया. समय बहुत कम था लेकिन अधिकांश ने सहयोग किया, जो आपके सामने परिचर्चा के रूप में है. दो-तीन लोगों के ऊपर दादगिरि भी दिखानी पड़ी, क्योंकि जानती थी, कि मेरे ये मित्र मेरी दादागिरि की लाज रख लेंगे :) है न शिखा? शेफाली? ज्योति?????
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दाल-रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ- रश्मिप्रभा................बात निकली तो .... बहुत जोर से रोना आया . क्या चर्चा , क्या परिचर्चा ! पर्व
त्योहार का मज़ा तभी था , जब बच्चे थे ... अब तो डर लगता है पर्व त्यौहार के
करीब आने पर ... मन कहता है , ये जो थोड़े से हैं पैसे , खर्च तुम पर करूँ कैसे
!
" बहुत मुश्किल है - सब्जी के भाव आसमान पर ,
गैस सिलिंडर महंगा , तेल महंगा , चावल दाल आटे के भाव चैन से सोने नहीं
देते , ऊपर से मोबाइल रिचार्ज , अपना भी बच्चों का भी , टीवी रिचार्ज ,
इन्टरनेट ....समय के साथ चलते चलते नानी सारे दिन याद ही रहती है - अब
ख़ास त्योहार के दिन भी यही कहना होता है - दाल रोटी खाओ प्रभु के गुण गाओ ....
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आमदनी अठन्नी, खर्चा रुपैया..... ज्योति सिंह-------------------
महँगी शक्कर मंहगाखोया गुझिया बनी कुछ पोली है.
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इतना गम्भीर विषय क्यों छेड़ दिया तुमने?- इस्मत ज़ैदी ’शेफ़ा’कम खर्चे में ही लुत्फ़ उठाना चाहिये-शमा जी...............
आज अचानक वंदना का फोन आया कि ज्योति तुम्हें मेल भेजा है खोल कर जल्दी देखो
और फ़ौरन कुछ लिख के भेजो. मैं तुरंत पूछ बैठी, इस बार क्या विषय चुना है? तब वंदना ने बताया, मंहगाई कि मार: कैसे मनाये त्यौहार. सुनते ही मुंह से निकल पड़ा वाह!मैं जानती थी, वंदना कुछ ख़ास ही सोच के रक्खी होगी. लेकिन इतने अच्छे विषय पर मुझे सोचने.का अवसर ही नहीं मिल सका. क्योंकि होलिका दहन के कुछ समय पहले ही मुझे चेतावनी दी गयी कि तुरंत एक घंटे में लिख कर भेजो. जिस अधिकार से कहा गया, वहां न बहानेबाजी की जगह थी न हीं इंकार करने की गुन्जाइश. क्योंकि बात भावनाओं के सम्मान की रही. और जल्दबाजी में जो समझ में आया वो लिखने लगी. शुरू कहाँ से करुँ? कुछ इसी पर अटक गई. फिर सोची, सच ही तो है इस मंहगाई के साथ क्या मनाये
कोई त्यौहार. ज़रा भी तालमेल नहीं बैठता, इनका. आमदनी अठन्नी, खर्चा रुपैया जैसी स्थिति बन चुकी है. हर माध्यम वर्ग की ऐसे में किसी भी तय्हार पर अलग से खर्च करना या उसकी तैयारी में अपने बने बनाए बजट को बिगाड़ना ज़रा मुश्किल होता है. क्योंकि पहली ज़रुरत को नज़रंदाज़ करके यदि हम अपने तय्हार को धूमधाम से मन लेते हैं तो आगे उधार कई नौबत आ जाती है. इससे मानसिक तकलीफें बढ़ जाती है. त्योहार की गरिमा को बनाए रखने की भी ए
क बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है हम भारतीयों पर.इसलिए बहुत न सही छोटे स्तर पर ही हमें क़ायम रखना तो है ही इसे. इसके लिए जितनी ज़रुरत हो, और अपनी जेब एवं आय जितनी इजाज़त दे, उसी के मुताबिक़ हमें इस रौनक को बरकरार रखना है. इसलिए चुटकी भर गुलाल से करें गाल लाल, बड़ों को टीका लगा कर करें प्रणाम, और कुछ मीठा हो जाए, की रस्म को निभाएं. वैसे हर त्यौहार का आधार है प्यार जो मुफ्त में दी-ली जा सकती है. जिसकी नींव गहरी हो तो हर मंहगाई से निपटा और उत्साह को जिंदा रक्खा जा सकता है. मंहगाई की मार में भी त्यौहार के अस्तित्व को बनाए रखें, ताकि हमारी संस्कृति की पहचान बनी रहे.
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त्यौहार पैसे से नहीं प्यार से मनता है- रचना जी.
त्यौहार पैसे से नहीं
प्यार से मनता हैं
और अभी ऐसी महगाई
नहीं हैं आयी
अथाह प्यार हैं आपके
और मेरे पास भी
प्यार के अबीर और गुलाल से
रंगिये अपनी और मेरी आत्मा को
प्यार से मनता हैं
और अभी ऐसी महगाई
नहीं हैं आयी
अथाह प्यार हैं आपके
और मेरे पास भी
प्यार के अबीर और गुलाल से
रंगिये अपनी और मेरी आत्मा को
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सखी सैंयां तो खूबई कमात हैं- साधना वैद..................................
यह दुखती रग पर हाथ क्यों रख दिया वन्दना
जी ! हमें तो इन दिनों पीपली लाइव का गाना बड़ा याद आता है-
“सैंयाँ तो खूब ही कमात हैं मँहगाई डायनखाये जात है”
मँहगाई और मिलावट ने सभी त्यौहारों का मज़ा किरकिरा कर दिया है ! खोया इतना मंहगा है बाज़ार में कि गुजिया बनें तो कैसे और कितनी ! और इस पर भी कोई गारंटी नहीं कि खोया शुद्ध ही होगा ! अपने बचपन के दिन याद आते हैं जब मम्मी कनस्टर भर भर कर पकवान बनाती थीं और हम सभी स्वाद ले लेकर हफ़्तों उनका लुत्फ़ उठाते थे
! मँहगाई ने किचिन के बजट को पूरी तरह से अपसेट कर दिया है ! साल भर का त्यौहार है ! बच्चे भी उत्साह के साथ अपने मन पसंद के पकवानों की लिस्ट बताते जाते हैं, “ दादी यह भी बनाना ! दादी वह भी बनाना !” लेकिन जब सामान खरीदने बाज़ार जाते हैं तो अपने पर्स का वज़न कीमतों के सामने बड़ा हल्का लगने लगता है और मन मसोस कर रह जाते हैं ! मँहगाई की कृपा से जो पकवान पहले हफ़्तों चलते थे वे अब दिनों में सिमट गये हैं और अगर मँहगाई इसी तरह सुरसा की तरह बढ़ती रही तो कोई आश्चर्य नहीं कि आने वाले सालों में यह चंद घंटों का शगूफा बन कर रह जाये कि जब मेहमान होली मिलने आयें तो उसी समय गिनी चुनी थोड़ी सी गुजिया और थोड़ा सा नाश्ता बना कर उनके सामने रख दिया जाये ! और पकवान ही क्या रंग, गुलाल, अबीर सभी की कीमतें तो आसमान छू रही हैं ! लेकिन कोई बात नहीं मँहगाई कितनी भी बढ़ जाये हमारे मन के उल्लास और उत्साह से ऊँची नहीं हो सकती ! हमारी खुशियों को कम नहीं कर सकती ! तो कीमतों के जोड़ बाकी को छोड़ पूरे हर्ष और उल्लास के साथ त्यौहार मनाइये ! थाली में मंहगे रंग गुलाल हों या न हों प्रेम, प्यार और अनुराग का गुलाल जम कर सबके चेहरोंपर मलिये और मन में हिलोरें लेते प्यार और मौहब्बत के समंदर से बाल्टी भर-भर रंग निकाल कर खूब सब को सराबोर कीजिये और खूब होली खेलिये !होली की आप सभी को ढेर सारी शुभकामनायें !
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बस मौका दे दिया, तो रो लिया-रेखा श्रीवास्तव......................................
अरे वंदना बड़ा अच्छा और विषय है और दुखती रग पर हाथ भी रख दिया है. लेकिन होली में पूरा रोना रोया जा सकता है. सच कहा जाए तो अब तो त्यौहार सिर्फ लीक पीटना भर रह गया है क्योंकि जितनी तेजी से मंहगाई बढ़ रही है हमारी आमदनी तो बढ़ नहीं रही है और फिर जरूरी जरूरतों के लिए तो हम संघर्ष करने जैसी स्थिति में है. आज की तारीख में गैस सिलेंडर की मारामारी है. कल त्यौहार और आज हमारे पास एक भी सिलेंडर ही नहीं है तो किस दम पर गुझिया और पापड़ बनाने की सोची जाय . ये एक मेरी हालात नहीं है बल्कि मेरे जैसे और भी बहुत से हें. कोई ८०० रु. में ब्लैक में खरीद कर लगा रहा है और कोई ६०० रुपयें. आज हमें इस कीमत पर भी कोई देने या दिलाने वाला नहीं मिल रहा है. ईमानदारी से मिलने वाला सिलेंडर तो एजेंसी वालों ने कह दिया कि अभी डिलीवरी ही नहीं आ रही है हम कहाँ से दें? जबकि सबको मालूम है कि ये सिलेंडर इंडियन आयल से निकल कर पहले ही ढाबों पर बेच दिए जाते हें. खोया घर में बनाया जाय तो कैसे और बाजार से लाया जाय तो मंहगाई के चलते मिलावटी खोये के अलावा कुछ मिल ही नहीं रहा है. कभी हम 2 से 3 किलो खोये की गुझिया बनाया करते थे, साथ में रवे की , तिल की और न जाने क्या क्या? सब माँ के घर में देखा था तो बना लिया करते थे . और आज सोच रहे हें कि क्यों न बाजार से छप्पन भोग से 2 किलो बनी हुई गुझिया मंगवा लें . त्यौहार में इज्जत भी रह जायेगी और इस बार बच्चे भी aane वाले नहीं है क्योंकि सब लगातार शादियों में छुट्टियाँ ले चुके हें इसलिए बस आने जाने वालों के लिए बहुत होगा . पतिदेव और जेठ जी दैबितीज के मरीज है सो खायेंगे नहीं बचे हम और जिठानी जी सो होली मिलने जायेंगे तो खा कर मन भर लेंगे. है न मजेदार आइडिया . भैया अब इस मंहगाई से इसी तरह निपटा जा सकता है और इज्जत भी बचाई जा सकती है.
कभी हम ही ३० -४० किलो आलू के चिप्स बनाया करते थे और वह भी नौकरी और बच्चों के साथ साथ लेकिन अब आलू का भाव भी आसमान छू रहा है फिर उसके तलने के लिए तेल कौन सा सस्ता हो रहा है. जो पहले हफ्तों पहले से चिप्स , कचहरी और पापड़ बनाना शुरू कर देते थे, छुट्टी के शनि और रवि दोनों दिन के लिए
पहले से प्लानिंग रहती थी. अब सब कुछ बाजार में रेडीमेड मिल रहा है चलो जाकर खरीद लायेंगे और त्यौहार की परंपरा को पूरा कर लेंगे. अभी कानपुर में बम्बईया संस्कृति नहीं आई है कि होली सिर्फ औपचारिकता के लिए मना ली जाय. यहाँ खूब धमाल होता है भंग का रंग भी जमता है लेकिन इस मंहगाई ने सब रंग फीके कर दिए . अब किसके आगे रोना रोया जाय. बस मौका दिया तो दुखड़ा रो लिया.
बुरा न मानो होली है, बस ये मन की गाँठ ही खोली है.
रंग के पिटारी बंद रखी है, हाथ में गुलाल और रोली है. महँगी शक्कर मंहगाखोया गुझिया बनी कुछ पोली है.
भंग की गुझिया और शरबत पी कर मस्त हुरिआरों की टोली है.
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अब तो अबीर-गुलाल के टीके से काम चलाओ भाई.........:)
अब महेंगाई तो सुरसा जैसे मुँह फैलाये जा रही है जिसका ओर छोर फ़िलहाल तो दिख
नहीं रहा इसकी मार दैनिक दिनचर्या वाले घरेलु वस्तुओ पर भी दिखने लगी है .चार्वाक के दर्शन "क़र्ज़ ले कर घी पीओ " के चक्कर में वैसे भी आम जनता का बटुआ सिकुड़ा ही रहता है .हम उत्सवप्रिय भारतीयों के लिए त्यौहार, दिखावे के चक्कर में बजट को चरमरा देने वाले होते है . तो बुद्धिमानी इसी में है की हम त्यौहार अपनी चादर की लम्बाई देख कर मना लें, मजबूरी का नाम .....की तर्ज़ पर -पैसे और दिखावे की जगह उसमें निहित भावना का महत्व बड़ा लें.अगर खोवा महंगा है तो घर में बनाओ . १ किलो नहीं १०० ग्राम की गुझिया बनाओ.
महंगे रंग बहाने की जरुरत नहींअबीर - गुलाल के टीके से काम चलाओ नए कपड़ों की क्या जरुरत ? पुरानो को ही काट छांट कर फैशनेबल बन जाओ और वो भी नहीं तो प्रेम से गले मिलो,अपनापन बांटो, खुशियों के, शांति के रंग बहाओ. मुझे तो एक शेर याद आ रहा है -
घर से बहुत दूर है मंदिर / मस्जिद यारो ,
चलो किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाये.
अरे वंदना होली के अवसर पर जहाँ हर ओर मस्ती और हुड़दंग का माहौल है तुम ने इतना गंभीर विषय छेड़ दिया ??? कोई बात
नहीं अब तुम्हारा आदेश है तो पालन तो करना ही पड़ेगा ,,अब चाहे ऐसे करें या फिर ऐसे ये सच है कि आजकल त्योहार मनाना बहुत कठिन होता जा रहा है ,हालाँकि बाज़ार ज़रूरत की सारी चीज़ों
से भरा पड़ा है लेकिन हालात कभी कभी उन तक पहुँचने की इजाज़त नहीं देते ,,कभी तो कारण बनता है खाने-पीने की चीज़ों में मिलावट और कभी मँहगाई यहाँ विषय चूँकि मँहगाई है इसलिये उस पर ही चर्चा कर ली जाए -----
हमारे देश में हर त्योहार का विशेष आकर्षण होती हैं खान पान की वस्तुएं चाहे वो ईद हो ,होली हो , दीवाली हो या कोई और पर्व,
, सो बात इसी से आरंभ की जाए हर चीज़ चाहे वो रसोई गैस हो या खाद्य सामग्री आम जन की पहुँच से बाहर होती जा रही है ,,हम परंपराओं के निर्वहन के लिये वो सब करना चाहते हैं जो होता आया है पर ये संभव ही नहीं हो पाता ,,त्योहार जो लोगों में परस्पर सद्भावना और समानता के लिये बनाए गए थे आज सब से अधिक असमानता दर्शाने का कारण बनते जा रहे हैं शायद आँशिक तौर पर मैं विषय से हट रही हूँ लेकिन क्या करूँ मुझे जो चीज़ सब से ज़्यादा परेशान करती है ,,घूम फिर कर मैं वहीं आ जाती हूँ हालाँकि इस असमानता का कारणभी मँहगाई का बढ़ना ही है दीपावली के दियों, झालरों और सजावट में अंतर ,,होली के रंगों की क़िस्मों में अंतर कहीं अस्ली गुलाल इस्तेमाल होता है टेसू के फूलों से बना तो कहीं रसायनिक पदार्थ मिले हुए गुलाल और रंग ,,,खोए में मिलावट ,,दूध में मिलावट .......असली ,शुद्ध चीज़ें हमारी पहुँच से बाहर होती जा रही हैं जब मध्य वर्ग इतना त्रस्त है तो उन के बारे में क्या कहा जाए जो शायद पानी से होली खेलने में भी असमर्थ हैं ख़ैर इस विषय पर यूँ तो लिखने के लिये बहुत कुछ है परंतु मैं इन पंक्तियों के साथ अपनी बात को विराम देती हूँ
है कौन जो इन प्रश्नों को सुने ?
है कौन जो इन के उत्तर दे ?
अब अपने ही अन्दर झांकें
और अपनी सच्चाई आंकें
होली की अनंत शुभकामनाएं
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भला हो इंटरनेट का-अनीताकुमार------------------
हर साल की तरह होली से दो दिन पहले सोसायटी की पानी की टंकी पर बैठ कर मीटींग हुई, इस बार होली का त्यौहार कैसे मनाना है। बम्बई के माचिस की डिबिया जैसे घरों में घर में घुस कर होली खेलने का तो कोई सोच भी नहीं सकता। सब नीचे कम्पाउंड में ही खेलने उतरते हैं। उस दिन सुबह नाश्ते के बाद सब घरों की किचन बंद रहती है। महिलायें होली खेलने न उतरें तो होली भी कोई होली है क्या? केटरर की भी चांदी रहती है। होली की पूर्व संध्या की मीटींग ये निश्चित करने के लिए होती है कि खाने में क्या मंगाया जाये। चार साल पहले तक बहस का एक मुद्दा और भी होता था कि कौन सा ढोलक वाला बुलाया जाये। जी हां! वो जमाने हवा हुए जब लोगों को हारमोनियम और ढोलक बजाने आते थे। वो सब हूनर तो आज की शिक्षा पद्धति की भेंट चढ़ गये। पता नहीं फ़ागुन के महीने में परिक्षायें रखने में सरकार को क्या सेडिस्टिक आनंद मिलता है। खैर ढोलक वाले का मुंह हर साल ज्यादा से ज्यादा खुलता गया और हम सब की जेबें छोटी होतीं गयीं, हार कर उसे सोसायटी का गेट दिखाना पड़ाऔर अमिताभ बच्चन का सहारा लेना पड़ा, ' रंग बरसे चुन्नर वाली…'। खैर बात हो रही थी होली पूर्व मीटींग की। सबका मानना था कि केटरर का मुंह चौड़ा होता जा रहा है और खाने का स्वाद बकबका सा। तो? अब क्या? क्या इसे सोशल लंच का भी खात्मा कर दें? ऐसा करने के लिए किसी का मन नहीं था। कुछ ग्रहणियों ने सुझाव रखा कि इस बार सब अपने अपने घर से कुछ व्यंजन बना कर लायें, इस तरह स्वाद की विविधता भी बनी रहेगी और किफ़ायती भी होगा। नौकरी पर जाने वाली महिलायें अपनी छुट्टी का खून होते देख इस प्रस्ताव से ज्यादा खुश नजर नहीं आयीं पर जब दूसरी महिलाओं ने उन्हें सहायता देने का आश्वासन दिया किया तो वो भी तैयार हो गयीं। सफ़ाई ये दी जा रही थी कि वैसे भी पिछले एक दो साल से महिलायें कम ही नीचें आ रही थीं होली खेलने के लिए। पुरूष वर्ग जहां एक तरफ़ सोच रहे थे कि ये भी कोई होली होगी वहीं इस बात से खुश थे कि एक दिन तो होटल के खाने से निजाद मिलेगी। इस समय जब मैं आप से मुखातिब हूँ सुबह के साढ़े दस बजे हैं। नीचे छ: सात बच्चे हाथों में पिचकारी लिए इधर उधर भाग रहे हैं जैसे पक्षियों का झुंड आकाश में एक साथ उड़ता है। अमिताभ, शुभा मुदगल बज रहे हैं। पुरुषों की जमात नादारत है। अभी अभी मेरी पड़ौसन आयी थी तो पता चला उसके पतिदेव होली छोड़ पूरियां तलने में उसकी मदद कर रहे हैं। शायद यही हाल दूसरे घरों का भी होगा। इक्के दुक्के मर्द फ़्री हैं तो क्या होली खे लेगें, उसी पानी की टंकी पर बैठे ( जिस बैठ कर केटरर को गेट दिखाने का निर्णय लिया गया था) बच्चों से रंग का टीका लगवा रहे हैं। आप सोचेगें मैं पोस्ट लिख रही हूँ तो मेरे पति देव क्या कर रहे हैं। अजी अभी बताया न पड़ौसन आ कर बता गयी थी कि खाने वालों की संख्या पचास से बड़ कर साठ हो गयी है, मेरे जिम्मे रायता बनाने का काम आया( उम्र का फ़ायदा॥:) ) तो उन्हें और दही लाने भेजा है कहीं कम न पड़ जाये वैसे भला हो इस इंटरनेट का, कम से कम बिना जेब देखे आप सब को होली की ढेर सारी शुभकामनायें तो दे सकती हूँ। हैप्पी होली-----------------------------------------------------------------
शमा जी को पिछले दिनों हृदयाघात हुआ, अब वे पहले से बेहतर हो रही हैं, लेकिन इतनी भी नहीं कि लम्बा-चौड़ा लेखन कर सकें,. ये तो उनका बड़प्पन है, कि उन्होंने मेरा अनुरोध टाला नहीं, और चंद पंक्तियां लिख
भेजीं. बहुत-बहुत आभारी हूं उनकी.- वंदना अ. दुबे
सोचती हूँ,त्यौहार न होते तो जीवन कितना नीरस हो जाता! चाहे बीमारी की मार हो चाहे महंगाई की, दुनिया किसी न किसी तरह त्यौहार मनाती ही है! कुछ
त्योहारों का तो हम साल भर इंतज़ार करते हैं और उस दिशा मे बचत भी कर लेते हैं! चाहे कम ही सही लुत्फ़ ज़रूर उठाते हैं!
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नेट पर खेलो होली और खाओ भी-.शेफाली पांडे..................
ट्विटर पर खेली ,जी भर के होली
मला ऑरकुट पर, अबीर गुलाल |
नमकीन और गुजिया,फेसबुक पर खाई
घर आने वालों डर कर, किये एस. एम्. एस.,दी बधाई |
जिस तरह मनी थी दीवाली ,उसी तरह होली मनाई
इस दौर - ए - महंगाई में जो बच गए, उन शूरवीरों को होली की बधाई |
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मंहगाई हो या न हो, त्यौहार तो मनाते ही हैं सब- प्रियदर्शिनी.....
मंहगाई की मार चारो और है ..अमीर हो या गरीब सभी पर महगाई का प्रभाव देखा
जा सकता है ,उच्च आय वर्ग हो या मोती तनख्वाह पाने वाले कर्मचारी ..इन पर
महगाई अपना प्रभाव नही डालती ..जिस तेजी के साथमहगाई बढ़ी है .महगे
खरीददारों की भी कमी नहीं है ..हमारे शहर में भी होली के चलते गैस सिलेंडर ९००
रूपए में बिके ..वो भी बड़ी मुश्किल से मिले.....ऐसे में ये त्यौहार भी अब बला से
कम नही लगते ..निम्न आय वर्ग जो अपनी रोजीरोटी का भी जुगाड़ नही कर पता .
त्यौहार तो अब उसके लिए तनाव का कारन बन गये है ..हां माध्यम वर्ग जरूर
आज भी जोड़ - तोड़ करके त्यौहार को संक्षेप में मना ही लेता है
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आपने तो दुखती रग पर हाथ रख दिया वंदना जी , इतने सारी सम्मानीय लोगों द्वारा महंगाई व्यथा सुनकर हमारे ह्रदय में संतोष हुआ की मेरी धर्मपत्नी सही बोलती है . वो हमेशा पूछती रहती है की मेरा प्रोमोसन कब होगा . हे हे . मै बोल देता हूँ ," जब आवे संतोष धन , सब धन धुरि समान ".
जवाब देंहटाएंधर्मपत्नियां सही ही बोलती हैं आशीष जी :)
हटाएंएक जगह पर इतना ज्ञान और कहाँ मिलेगा भला।
जवाब देंहटाएंतब क्या प्रवीण जी :)
हटाएंहूँ इस बार फिर ,, एक साथ इतने लोगो के विचार एक ही विषय पर पढना अच्छा लगता है ...और यह काम तुम ही कर सकती हो .वाह ..
जवाब देंहटाएंशुक्रिया बब्बी :)
हटाएंwaah ,tumahare holi ke rang to zabdarst hai ,sabke ke vichar ko padhna bahut achchha laga .gulal aur rang bikhare hai ......
जवाब देंहटाएंthanks jyoti :)
हटाएंहा हा हा तुम्हारी ऐसी दादागिरी सर माथे.इसी बहाने महंगाई का बोझ लिखकर थोड़ा कम हो गया:).
जवाब देंहटाएंजानती हूं,तभी तो जबरिया लिखवा लिया तुमसे :)
हटाएंvery nice creation.....
जवाब देंहटाएंthanks varsha ji.
हटाएंतुम्हारा ये गंभीर आयोजन भी सफल रहा , बधाई हो वंदना
जवाब देंहटाएंसभी इस समस्या से त्रस्त दिखाई दे रहे हैं ,सच में डर लगता है कि ये तीज त्योहार औपचारिकता मात्र हो कर न रह जाएं ,,,,हालाँकि ये बहुत बड़ा कारण हैं आपसी मेल जोल और सामाजिक रिश्तों को बनाए रखने का
सही है इस्मत. त्यौहार के बहाने कम से कम सब एक-दूसरे को बधाई तो देते हैं :)
हटाएंरंग रंग की होली.
जवाब देंहटाएं:) :) :)
हटाएंये दादागीरी भी अच्छा रंग लाई है
जवाब देंहटाएंइसी बहाने कई रंग देखने को मिल गए ....
आपका तो अतिरिक्त शुक्रियादा करना है मुझे शेफ़ाली.
हटाएंमजेदार परिचर्चा है वन्दना जी ! यह अच्छा है कि सबके चेहरों पर गुलाल इतना मला हुआ है कि मँहगाई की कृपा से उनकी फीकी मुस्कान भी रंगीन लग रही है ! सबके विचार पढ़ कर बहुत मज़ा आया ! होली की हार्दिक शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंसहयोग के लिये शुक्रिया साधना जी.
हटाएंअरे वंदना एक बात का धन्यवाद देना तो भूल ही गए कि इस परिचर्चा में इतनी सिद्धहस्त साहित्यकारों के साथ तुम ने मुझे भी शामिल किया !!!!
जवाब देंहटाएंइन सब को पढ़कर कुछ सीखने को मिला ,आत्मा तृप्त हो गई !!!
रंग-बिरंगी होली की तरह रंग-बिरंगे विचार...मजा आ गया....
जवाब देंहटाएंitna gyaan......... kaise batorun:)....
जवाब देंहटाएंhaan aapki baat ka jwaab blog pe de diya hai .....
जवाब देंहटाएंशैलेश जी का तो फोन ही नहीं लगता हरकीरत जी :(
हटाएं@ ऊपर से मोबाइल रिचार्ज , अपना भी बच्चों का भी , टीवी रिचार्ज ,इन्टरनेट .
जवाब देंहटाएंहा...हा...हा.....सब कुछ गिना दिया रश्मि जी ने ......
@ मंहगाई की मार में भी त्यौहार के अस्तित्व को बनाए रखें, ताकि हमारी संस्कृति की पहचान बनी रहे....
बहुत अच्छा लिखा ज्योति जी ने .....
@
“सैंयाँ तो खूब ही कमात हैं मँहगाई डायनखाये जात है”
बहुत खूब sadhna जी .....
@ जबकि सबको मालूम है कि ये सिलेंडर इंडियन आयल से निकल कर पहले ही ढाबों पर बेच दिए जाते हें. खोया घर में बनाया जाय तो कैसे और बाजार से लाया जाय तो मंहगाई के चलते मिलावटी खोये के अलावा कुछ मिल ही नहीं रहा है.
sahi bat likhi rekha जी ने ....
@ भला हो इस इंटरनेट का, कम से कम बिना जेब देखे आप सब को होली की ढेर सारी शुभकामनायें तो दे सकती हूँ।
जी अनीता जी आपको भी शुभकामनाएं ....:))
@ शमा जी को पिछले दिनों हृदयाघात हुआ है ....
शमा जी सुनकर दुःख हुआ ....मेरी दुआएं हैं वे जल्द स्वस्थ लाभ करें ....
@ हमारे शहर में भी होली के चलते गैस सिलेंडर ९००
रूपए में बिके ..
उफ्फ्फ ....
vandna जी बहुत achhi parichrcha rahi holi par ....sabhi ka apna apna nazariya dekhne ko mila ....
hamne to bilkul nahin kheli is baar ...waise भी pita swasur जी ka dihant hue abhi do hi mahine hue हैं ....
समझ सकती हूं हरकीरत जी. अभी तो शायद कोई भी त्यौहार साल भर नहीं मनाया जायेगा आपके यहां.
हटाएंपर कुछ दोस्त ऐसे ढीठ होते हैं कि उनपर दादागीरी भी नहीं चलती :)
जवाब देंहटाएंएम रियली वेरी वेरी सॉरी वंदना..तुम्हारे इतना जोर देने पर भी लिखने का समय नहीं निकाल पायी...
पर तुम्हे पता ही है ना...कैसी कैसी व्यस्तताएं हैं....मन हो रहा है .'व्यस्ततम सप्ताह'...शीर्षक से एक पोस्ट ही लिख डालूं...:)
कहानी की अगली किस्त लिखनी...होली की तैयारी...एक करीबी की सगाई और मैराथौन...रात दो बजे पार्टी से लौटकर सुबह साढ़े पांच बजे प्रैक्टिस के लिए जाना क्या होता है...ये जिसपे गुजरती है..वही जानता ..अब आशा है...इतनी सफाई काफी होगी..:)
और देखो..पिछले कुछ दिनों में ये मेरा वन एन ओनली कमेन्ट तुम्हारी पोस्ट पर ही है...{अब दूसरे नाराज़ ना हो जाएँ :)}
सबो के विचार बहुत अच्छे लगे....सफल रहा आयोजन.
कोई बात नहीं रश्मि. व्यस्तता के मायने जानती हूं मैं, क्योंकि इतना ही व्यस्त मुझे रोज़ रहना पड़ता है :( :(
हटाएंबहुत सुंदर कम से कम दिल की भड़ास तो निकालने का मौका तो मिला. वैसे मंहगाई चाहे जितनी बढे करने सब त्यौहार पड़ते हें .
जवाब देंहटाएंसही है रेखा दी.
हटाएंvandna ji kal do tippaniyaan dali thi ....dekhiye jra spam mein ....
जवाब देंहटाएंहां ये समस्या बहुत दिनों से परेशान किये है :(
हटाएंवाह! बड़ी अच्छी चर्चा हुई यहाँ...
जवाब देंहटाएंऐसी दादागिरी सर माथे !!!!!
जवाब देंहटाएं:)
हटाएंबहुत ही बढ़िया लिंक्स पढ़वा दिये यहाँ आपने॥रंग पंचमी की हार्दिक शुभकामनायें :)
जवाब देंहटाएंthanks pallavi
हटाएंवंदना दादागिरी के आगे सबने इतने सलीके से लिखा कि मज़ा आ गया .... सबकी कही और तुम ?
जवाब देंहटाएंजो आपने कही वही तो हमारी कहन है दी :)
हटाएंआपका यह प्रयास सराहनीय लगा ... विलम्ब से शुभकामनाएं आपके लिए :)
जवाब देंहटाएं